पृष्ठ:सरदार पूर्णसिंह अध्यापक के निबन्ध.djvu/१०९

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पावत्रता PER जापान को देखो, वहां किसी बालक को कभी भी ब्रह्मचर्य का आदर्श इस ज़ोर से इस अगड़ रगड़ से नलों से नहीं पिलाया जाता-- जैसे यहां, परन्तु सबके सब फूलों के समान खिले चहरेवाले हैं, बलवाले हैं, विद्यावाले हैं महान् अनुभवोंवाले हैं उच्च उद्देश्यवाले हैं । हर कोई कहता है- डटकर खड़ा हुआ हूं खाली जहान में। विना और तसल्ली दिल भरी है मेरी दममें जानमें । कौन सी प्रलय आ गई कि हमारे देश से ब्रह्मचर्य का श्रादर्श अमली तौर पर विलकुल नष्ट भ्रष्ट हो गया । नज़र ही नहीं आता; मुझको देखो तुझको देखो, इसको देखो उसको देखो। सब जले भुने सड़े सड़ाए चहरे लिए हुए आर्यऋषियों का नाम ले रहे हैं । बस महाराज ! ब्रह्मचर्य के इस विचित्र उपदेश को बन्द करो जिसमें तुमने स्त्रीजाति का तिरस्कार किया है । अमली तौर से वैराग्य के घने उपदेशों से स्त्रीजाति का तिरस्कार किया है। ब्रह्मचर्य अब इस अपवित्र देश में विना माता भक्ति के, कन्यापूजा के कभी भी स्थापित नहीं हो सक्ता [सकता] । इस देश में क्या, कहीं भी ऐसा नहीं हो सक्ता सकता] । ईसा को ऐसा ही उपदेश करते २ हार हुई । बुद्ध को हार हुई, शङ्कर का दिग्वजय हार में बदल गया ? संन्यासी साधुओं के इस हार ने छक्के छुड़ा दिए। सारी फ़ौज इन स्त्रीजाति के अहित, ब्रह्मचर्य पालन करानेवाले जरनेलों की तित्तर बित्तर हो गई, पता ही नहीं लगता कहां गई? जब यह हार गए तब इनके स्वरूप पर घड़े गढ़े हुए आश्रम और समाज स्कूल और कालिज कब जीत सक्ते सकते हैं ? इन मांक Monk रुण्ड मुण्ड संन्यासी रूप विद्यालयों को क्यों बना रहे हो ? जो और शङ्कर का ईसा और चैतन्य का दर्शन न करा सका वह भला मातृरहित, n १०६