पृष्ठ:सरदार पूर्णसिंह अध्यापक के निबन्ध.djvu/१११

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पवित्रता दान लेना नहीं, दान देना भी एक पवित्रता का साधन माना जाता है परन्तु वह प्राचीन दान देने का भाव तो काफूर की तरह इस देश से उड़ गया है । दान देने से तो अपने पापों दान को जिनसे धन आजकल कमाया जाता है, उनको छिपाने की ग़रज़ है, पवित्रता के चिन्तन और ग्रहण से क्या प्रयोजन है ? जिस तरह रिश्वत दे देकर धन एकत्रित होता है उसी तरह ईश्वर को भी रिश्वत देकर स्वर्ग लेने की मनशा हो रही है । ऐसा इकट्ठा करके वैसे दे देना, धर्मशाला बनवा देनो, क्षेत्र लगवा देने, ईश्वर की आँखों में नमक डालकर अपने आपको चतुर कहना, भारतवर्ष के अाज- कल के जीवन के निघण्टु में दान के अर्थ यही मिलते हैं । बस ! एकदम बन्द कर दो दान देने का और रुपया जमा कर सक्ते [सकते हो तौ करो, किसान की तरह अपना पसीना ज़मोन के अन्दर निचोड़ जो कुछ दाने ईसा, विचारों पर आधारित शैक्षण या धार्मिक संस्थायें भी इसी प्रकार गार्हस्थ्य जीवन में कभी पवित्रता न प्रस्तुत करेंगी । वे सर्वदा कपट, पाखंड और दम्भ को प्रोत्साहन देंगी, सदैव एक धोखे का जीवन उप- स्थित करेंगी | आज वास्तविक और सच्च सन्तों-बुद्ध, न्यूटन, कांट, वाल्ट बिटमैन और स्पेंसर के भारतीय अनुयायी अपने आश्रमों में कुछ नहीं करते, बल्कि सामाजिक पवित्रता की मृतक क्रिया करते हैं । नारी के पवित्र व्यक्तित्व से दूर हिमालय की गुफाओं में भाग जाना बुद्ध तथा रामकृष्ण परमहंस के देश के लिए लज्जाजनक है। सामा- जिक पवित्रता नारी के सामीप्य का परित्याग करने से अभिवृद्ध नहीं हो सकती, बल्कि वह उन्नत होगी नारी की उन प्रत्येक अवस्थाओं में उसे देवी के रूप में समझकर सम्मानपूर्ण आराधना करने से, जहाँ हम उसको माता-जैसी, बहन-जैसी, पत्नी-जैसी, पुत्री-जैसी मानते हैं, इतना ही नहीं गणिका के रूप में भी अपनाते हैं। ,