पृष्ठ:सरदार पूर्णसिंह अध्यापक के निबन्ध.djvu/११८

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आचरण की सभ्यता न काला, न नीला, न पीला, न सुफेद, न पूर्वी, न पश्चिमी, न उत्तरी, न दक्षिणी, बे नाम, वे निशान, बे मकान-विशाल अात्मा के आचरण से मौनरूपिणी सुगंधि सदा प्रसारित हुअा करती है । इसके मौन से प्रसूत प्रेम और पवित्रता-धर्म सारे जगत् का कल्याण करके विस्तृत होते हैं। इसकी उपस्थिति से मन और हृदय की ऋतु बदल जाते हैं। तीक्ष्ण गरमी से जले भुने व्यक्ति आचरण के काले बादलों की बूंदाबांदी से शीतल हो जाते हैं। मानसोत्पन्न शरदऋतु से क्लेशातुर हुए पुरुष इसकी सुगंधमय अटल वसंत ऋतु के अानन्द का पान करते हैं । अाचरण के नेत्र के एक अश्रु से जगत् भर के नेत्र भीग जाते हैं। आचरण के आनन्द-नृत्य से उन्मदिष्णु होकर वृक्षों और पर्वतों तक के हृदय नृत्य करने लगते हैं । आचरण के मौन व्याख्यान से मनुष्य को एक नया जीवन प्राप्त होता है। नये नये विचार स्वयं ही प्रकट होने लगते हैं। सूखे काष्ठ सचमुच ही हरे हो जाते हैं। सूखे कूपों में जल भर आता है । नये नेत्र मिलते हैं । कुल पदार्थों के साथ एक नया मैत्री-भाव फूट पड़ता है। सूर्य, जल, वायु, पुष्प, पत्थर, घास, पात, नर, नारी और बालक तक में एक अश्रुतपूर्व सुन्दर मूर्ति के दर्शन होने लगते हैं। मौनरूपी व्याख्यान की महत्ता इतनी बलवती, इतनी अर्थवती और इतनी प्रभाववती होती है कि उसके सामने क्या मातृभाषा, क्या साहित्य-भाषा और क्या अन्य देश की भाषा सब की सब तुच्छ प्रतीत होती हैं। अन्य कोई भाषा दिव्य नहीं, केवल आचरण की मौन भाषा ही ईश्वरीय है। विचार करके देखो, मौन किस तरह आपके हृदय की नाड़ी-नाड़ी में सुन्दरता को पिरो देता है ! वह व्याख्यान ही क्या, जिसने हृदय की धुन को-मन के लक्ष्य को-ही न बदल दिया । चन्द्रमा की मंद मंद हँसी का तारागण के कटाक्ष-पूर्ण प्राकृतिक मौन व्याख्यान का प्रभाव किसी कवि के दिल में n व्याख्यान ११८