पृष्ठ:सरदार पूर्णसिंह अध्यापक के निबन्ध.djvu/११७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

प्राचरण की सभ्यता- विद्या, कला, कविता, साहित्य, धन और राजत्व से भी आचरण की सभ्यता अधिक ज्योतिष्मती है । आचरण की सभ्यता को प्राप्त करके एक कङ्गाल आदमी राजाओं के दिलों पर भी अपना प्रभुत्व जमा सकता है । इस सभ्यता के दर्शन से कला, साहित्य और संगीत को अद्भुत सिद्धि प्राप्त होती है ! राग अधिक मृदु हो जाता है; विद्या का तीसरा शिव-नेत्र खुल जाता है, चित्र-कला का मौन राग अलापने लग जाता है; वक्ता चुप हो जाता है; लेखक की लेखनी थम जाती है; मूर्ति बनाने वाले के सामने नये कपोल, नये नयन और नयी छवि का दृश्य उपस्थित हो जाता है । आचरण की सभ्यतामय भाषा सदा मौन रहती है। इस भाषा का निघण्टु शुद्ध श्वेत पत्रों वाला है। इसमें नाम मात्र के लिये भी शब्द नहीं । यह सभ्याचरण नाद करता हुआ भी मौन है, व्याख्यान देता हुआ भी व्याख्यान के पीछे छिपा है, राग गाता हुअा भी राग के सुर के भीतर पड़ा है । मृदु वचनों की मिठास में आचरण की सभ्यता मौन रूप से खुली हुई है। नम्रता, दया, प्रेम और उदारता सब के सब सभ्याचरण की भाषा के मौन व्याख्यान हैं ।' जीवन पर मौन व्याख्यान का प्रभाव चिरस्थायी होता है और उसकी अात्मा का एक अंग हो जाता है । मनुष्य के