सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:सरदार पूर्णसिंह अध्यापक के निबन्ध.djvu/१२२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

अाचरण की सभ्यता चमड़े के नरम और गरम बिछौने पर उसने शिकारी को सुलाया । अाप वे-बिछौने की भूमि पर मो रहा । धन्य है त, मनुष्य ! त ईश्वर से क्या कम है ! त भी तो पवित्र और निष्काम रक्षा का कता है । तू भी तो आपन्न जनों का अपत्ति से उद्धार करनेवाला है। शिकारी कई रूसों का जार हो क्यों न हो, इस समय तो एक रोटी और गरम बिस्तर अग्नि की एक चिनगारी और टूटी छत पर- उसकी सारी राजधानियाँ बिक गई । अब यदि वह अपना सारा राज्य उस किसान को, उसकी अमूल्य रक्षा के मोल में, देना चाहे तो भी वह तुच्छ है; यदि वह अपना दिल ही देना चाहे तो भी वह तुच्छ है । अब उस निर्धन और निरक्षर पहाड़ी किसान को दया और उदारता के कर्म के मौन व्याख्यान को देखा। चाहे शिकारी को पता लगे चाहे न लगे, परन्तु राजा के अन्तस् के मौन जीवन में उसने ईश्वरीय औदार्य की कलम गाड़ दी। शिकार में अचानक रास्ता भूल जाने के कारण जब इस राजा को ज्ञान का एक परमाणु मिल गया तब कौन कह सकता है कि शिकारी का जीवन अच्छा नहीं । क्या जङ्गल के ऐसे जीवन में, इसी प्रकार के व्याख्यानों से, मनुष्य का जीवन, शनैः शनैः, नया रूप धारण नहीं करता ? जिसने शिकारी के जीवन के दुःखों को नहीं सहन किया उसको क्या पता कि ऐसे जीवन की तह में किस प्रकार और किस मिठास के प्राचरण का विकास होता है । इसी तरह क्या एक मनुष्य के जीवन में और क्या एक जाति के जीवन में पवित्रता और अपवित्रता भी जीवन के आचरण को भली भाँति गढ़ती है और उस पर भली भाँति कुन्दन करती है । जगई और मधई यदि पक्के लुटेरे न होते तो महाप्रभु चैतन्य के आचरण- सम्बन्धी मौन व्याख्यान को ऐसी दृढ़ता से कैसे ग्रहण करते । नग्न नारी को स्नान करते देख सूरदासजी यदि कृष्णार्पण किये गये अपने हृदय को एक बार फिर उस नारी को सुन्दरता निरखने में न लगाते १२२