निबन्धकार एवं कवि पूर्णसिंह अात्मा के नितान्त विपरीत था । अस्तु, किसी तरह इस मुकदमे से इन्हें छुटकारा तो मिल गया किन्तु मास्टर अमीरचन्द को फाँसी की सजा हो गयी। अतः इस घटना से न्यायप्रिय पूर्णसिंह को बहुत भयङ्कर मानसिक धक्का लगा और ये प्रायः उदास रहने लगे । यह घटना संवत् १६७१ ( अक्टूबर सन् १६१४ ) की है। इसके तीन वर्ष बाद इनके जीवन में दूसरी घटना घटी । पूर्णसिंह स्वभाव से ही स्वाभिमानी और स्वतन्त्रचेता व्यक्ति थे । इन्हें अपने कार्यों में कभी किसी का हस्तक्षेप जरा भी नौकरी से पसन्द नहीं था । इसी कारण इम्पीरियल फॉरेस्ट विराम इन्स्टीट्यूट के अधिकारियों से इनका मतभेद रहने लगा। धीरे-धीरे इनके और वहाँ के अधिकारियों के बीच का मतभेद उग्ररूप में परिणत हो गया। अन्त में संवत् १६७४ (सन् १९१७ ) में इन्होंने इन्स्टीट्यूट की नौकर- शाही से त्यागपत्र दे दिया । फिर कुछ समय बाद ये ग्वालियर राज्य के प्रधान रासायनिक नियुक्त हुए, जहाँ ये चार वर्ष तक रहे । वहाँ रहकर सिखों के दस गुरुत्रों की जीवन-सम्बन्धी 'दि बुक ऑव टेन मास्टर्स १ तथा स्वामी रामतीर्थ की जीवनी "दि स्टोरी प्रॉब स्वामी राम'२-यह दो पुस्तकें लिखीं। फिर इनका मन वहाँ नहीं लगा। बात यह थी कि ग्वालियर के महाराज ने इनको बुलाया था और चार लाख रुपया लगाकर एक नया कारखाना चलाने की योजना बनायी थी जिसमें वनस्पति-सम्बन्धी तथा अन्य बहुत-सी वस्तुएँ तैयार की जाती । चार वर्ष के भीतर पूर्णसिंह को इस योजना की सफलता प्रकट करनी थी किन्तु महाराज के दरबारियों ने पहले से ही कान भरने शुरू कर दिये कि यह चार लाख रुपया पानी में डूब रहा है। महाराज १. सिख युनिवर्सिटी प्रेस निस्बत रोड, लाहौर । रामतीर्थ पब्लिकेशन लीग, लखनऊ । . तेरह
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