पृष्ठ:सरदार पूर्णसिंह अध्यापक के निबन्ध.djvu/१३०

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आचरण की सभ्यता सूर्य और ताराओं के गूढ़ भेदों को जान सकता हूँ; समुद्र की लहरों पर बेखटके सो सकता हूँ। यह इसी प्रकार के स्वप्न देखता रहा; परन्तु अब तक न संसार ही की और न राम ही की दृष्टि में इसका एक भी बचन सत्य सिद्ध हुअा । यदि अब भी इसकी निद्रा न खुली तो बेधड़क शंख फूंक दो ! कूच का घड़ियाल बजा दो ! कह दो, भारतवासियों का इस असार संसार से कूच हुअा ! लेखक का तात्पर्य केवल यह है कि आचरण केवल मन के स्वप्नों से कभी नहीं बना करता । उसका सिर तो शिलानों के ऊपर घिस घिसकर बनता है। उसके फूल तो सूर्य की गरमी और समुद्र के नमकीन पानी से बारम्बार भीगकर और सूखकर अपनी लाली पकड़ते हैं । हजारों साल से धर्म-पुस्तकें खुली हुई हैं। अभी तक उनसे तुम्हें कुछ विशेष लाभ नहीं हुआ । तो फिर अपने हठ में पड़े क्यों मर रहे हो ? अपनी अपनी स्थिति को क्यों नहीं देखते ? अपनी अपनी कुदाली हाथ में लेकर क्यों आगे नहीं बढ़ते ? पीछे मुड़ मुड़कर देखने से क्या लाभ ? अब तो खुले जगत् में अपने अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा छोड़ दो । तुममें से हर एक को अपना अश्वमेध करना है । चलो तो सही । अपने आपकी परीक्षा करो । धर्म के आचरण की प्राप्ति यदि ऊपरी अाडम्बरों से होती तो आजकल भारत-निवासी सूर्य के समान शुद्ध आचरण वाले हो जात । भाई ! माला से तो जप नहीं होता । गङ्गा नहाने से तो तप नहीं होता । पहाड़ों पर चढ़ने से प्राणायाम हुआ करता है, समुद्र में तैरने से नेती धुलती है; आँधी, पानी और साधारण जीवन के ऊँच-नीच, गरमी-सरदी, गरीबी-अमीरी को झेलने से तप हुया करता है। आध्यात्मिक धर्म के स्वप्नों की शोभा तभी भली लगती है जब अादमी अपने जीवन का धर्म पालन करे । खुले समुद्र में अपने जहाज पर बैठ कर ही समुद्र की आध्यात्मिक शोभा का विचार होता है । भूखे को तो