पृष्ठ:सरदार पूर्णसिंह अध्यापक के निबन्ध.djvu/१३२

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आचरण की सभ्यता ढूँढना-अपने आपको एकत्र करना-अपने आचरण को प्राप्त करना है । आचरण की प्राप्ति एकता की दशा को प्राति है। चाहे फूलो की शय्या हो चाहे काटों की; चाहे निर्धन हो चाहे धनवान् ; चाहे राजा हो चाहे किसान; चाहे रोगी हो चाहे नीरोग हृदय इतना विशाल हो जाता है कि उसमें सारा संसार बिस्तर लगाकर अानंद से आराम कर सकता है; जीवन आकाशवत् हो जाता है और नाना रूप और रङ्ग अपनी अपनी शोभा में बेखटके निर्भय होकर स्थित रह सकते हैं। आचरणवाले नयनों का मौन व्याख्यान केवल यह है-“सब कुछ अच्छा है, सब कुछ भला है। जिस समय आचरण की सभ्यता संसार में आती है उस समय नीले आकाश से मनुष्य को वेद-ध्वनि सुनाई देती है, नर-नारी पुष्पवत् खिलते जाते हैं। प्रभात हो जाता है, प्रभात का गजर बज जाता है, नारद की वीणा अलापने लगती है, ध्रुव का शंख गूंज उठता है, प्रह्लाद का नृत्य होता है, शिव का डमरू बजता है, कृष्ण की बाँसुरी की धुन प्रारम्भ हो जाती है । जहाँ ऐसे शब्द होते हैं, जहाँ ऐसे पुरुष रहते हैं, जहाँ ऐसो ज्योति होतो है, वही आचरण की सभ्यत का सुनहरा देश है । वही देश मनुष्य का स्वदेश है । जब तक घर न पहुँच जाय, सोना अच्छा नहीं, चाहे वेदों में, चाहे इंजील में, चाहे कुरान में, चाहे त्रिपीठक में, चाहे इस स्थान में, चाहे उस स्थान में, कहीं भी सोना अच्छा नहीं । आलस्य मृत्यु है। लेख तो पेड़ों के चित्र सदृश होते हैं, पेड़ तो होते ही नहीं जो फल लावें । लेखक ने यह चित्र इसलिये भेजा है कि सरस्वती में चित्र को देखकर शायद कोई असली पेड़ को जाकर देखने का यत्न करे। 3 n n प्रकाशन-काल-माघ-फाल्गुन संवत् १९६८ वि० फरवरी-मार्च सन् १९१२ ई. १३२