निबन्धकार एवं कवि पूर्णसिंह भाषाओं के उद्धरणों का आना स्वाभाविक ही था । अंग्रेजी के उद्धरण तो इन्होंने कई एक दिये हैं, इसी प्रकार उर्दू शब्दों का प्रयोग भी इन्होंने जमकर किया है । यत्र-तत्र संस्कृत और पंजाबी के उद्धरण भी आ गये हैं। मैंने अंग्रेजी-उद्धरणों का तो फुटनोट में अनुवाद दे दिया है, शेष के स्पष्टीकरण के लिए पुस्तक के अन्त में परिशिष्ट संलम है । फुटनोट में जो उद्धरण अङ्क के माध्यम से न दिये जाकर विशेष चिह्नों के माध्यम से दिये गये हैं, वह 'सरस्वती' में मूल निबन्ध के साथ ही प्रकाशित सामग्री है। इस उद्भट लेखक का बहुत कुछ दुर्भाग्य था कि जहाँ ये हिन्दी में भावात्मक निबन्धों के जन्मदाता तथा लाक्षणिकता प्रधान शैली के प्रतिष्ठापक हैं वहाँ हिन्दी के माने-जाने समालोचक आलोचकों भी इनके विषय में बहुत कम जानकारी रखते की उपेक्षा हैं । पूज्य-पाद आचार्य शुक्ल जी ने अपने साहित्य के इतिहास में इनके द्वारा केवल तीन ही चार निवन्ध लिखे जाने का उल्लेख किया है। एक समालोचक ने तो इनके सम्बन्ध में यहाँ तक लिख मारा है कि ये गाँधीवाद से प्रभावित थे, पर वास्तविक बात तो यह है कि जिस समय ये लेख लिखे गये उस समय भारतीय राजनीति में महात्मा गाँधी का कोई अस्तित्व ही नहीं था। यह बात सही है कि आज से ४६ वर्ष पूर्व यूरोप के कुछ हिस्सों में मजदूर-संगठन-विषयक जिस अान्दोलन का जन्म हो रहा था उससे सरदार जी पूर्ण रूप से परिचित थे । उसका प्रत्यक्ष प्रभाव इनके 'मजदूरी और प्रेम' शीर्षक निबन्ध में मिलता है । उस आन्दोलन से प्रभावित निबन्ध के इन अंशों को देखिए-"जब तक धन और ऐश्वर्य की जन्मदात्री हाथ की कारीगरी की उन्नति नहीं होती तब तक भारतवर्ष ही क्या किसी भी देश या जाति की दरिद्रता नहीं हो सकती । यदि भारत की तीस करोड़ नर-नारियों की उंग- चौबीस
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