पृष्ठ:सरदार पूर्णसिंह अध्यापक के निबन्ध.djvu/३३

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हिन्दीनिबन्ध-शैली का विकास भी प्रविष्ट हो जाते दीख पड़ते हैं। व्याख्यानात्मक निबन्ध में भी विचार और भाव का मिश्रण रहता ही है केवल अभिव्यक्तिशैली के आधार पर उसको अलग माना गया है । इसी प्रकार वर्णनात्मक तथा पाख्यानात्मक निबन्धों में विचार और भाव की ओर ध्यान नहीं जाता, अपितु शैली की विशेषता के कारण प्रत्यक्ष एवं परोक्ष घटनाओं की और ही जाता है । इस शैली के आधार पर वर्गीकरण करने में और भी कितने ही प्रकार सामने पा सकते हैं। वास्तव में प्रत्येक निबन्ध में विचार और भाव सामान्यरूप से रहते हैं इसलिए इन्हीं के आधार पर वर्गीकरण करना अधिक वैज्ञानिक प्रतीत होता है । 'प्राधान्येन व्यपदेशा भवन्ति' के अनुसार विचारप्रधान निबन्धों को 'विचारात्मक' और भावप्रधानों को 'भावात्मक' वर्ग के अन्तर्गत मान लिया जाय तो कैसा रहे ? शुक्ल जी तो प्रकृत निबन्ध की विचारात्मक ही मानते हैं जिसमें बुद्धि के साथ हृदय का भी योग होता है। हिन्दीनिबन्ध-शैली का विकास- हिन्दी में निबन्धों का श्रीगणेश अंग्रेजी के अनुकरण पर भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र के भावात्मक निबन्धों से हुआ। हिन्दीसाहित्य के लिए यह एकदम अभिनव वस्तु थी। आधुनिक निबन्ध से मिलती जुलती कोई वस्तु संस्कृतसाहित्य में भी नहीं थी, यदि संस्कृत साहित्य में भी निबन्ध के नाम पर कोई वस्तु खोजी ही जाय तो उसका रूप गद्यात्मक न होकर पद्यात्मक ही मिलेगा । कालिदास के नाम से प्रचलित 'ऋतुसंहार' विभिन्न ऋतुओं पर लिखे हुए निबन्धों का संग्रह कहा जा सकता है यद्यपि उसके सम्बन्ध में प्रयुक्त निबन्ध शब्द अाधुनिक टिपिकल निबन्धों का संकेतक नहीं माना जा सकता । अंग्रेजी- साहित्य से हिन्दीसाहित्य का सम्पर्क होने के पूर्व अंग्रेजी में निबन्ध पूर्णतया विकसित हो चुका था । भारतेन्दु-युग के लेखक साहित्य के veu