भूमिका सभी अंगों के क्षेत्र में प्रयोग कर रहे थे । विदेशी साहित्य की चमक- दमक देख कर वे दंग रह गये थे और अपने साहित्य में भी यकबारगी वैसी ही विविधता लाना चाहते थे । कभी वे उपन्यास का प्रणयन करते, कभी कहानी पर हाथ जमाते, कभी पत्र-सम्पादनकला में अपनी प्रतिभा की आजमाइश करते और कभी समय मिलने पर निबन्ध रचना भी करते थे । व्यग्रता की इस दशा में निबन्ध या अन्य किसी साहित्यिक अङ्ग के समग्रतः सस्कृत हो जाने की अाशा नहीं की जा सकती, अतः उस युग के निबन्धों में जहाँ भावों और विचारों को शिथिलता है वहाँ शैलीगत त्रुटियाँ भी परिलक्षित होती है, व्याकरण-विरुद्ध प्रयोग, अव्यवस्थित शब्द-विन्यास, विराम आदि चिन्हों की उपेक्षा आदि अनेक प्रकार की शिथिलताएँ प्रायः तत्कालीन प्रत्येक निबन्धकार की भाषा में मिलती हैं। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र 'कवि-वचन-सुधा' में भाव व विचारमिश्रित अपने अनेक निबन्ध प्रकाशित कर इस दिशा में नवोदित लेखकों को मार्ग दिखा चुके थे परन्तु साहित्यिक निबन्धों का वास्तविक प्रारम्भ पं० · बालकृष्ण भट्ट ने किया । भारतेन्दु जो की भावात्मक शैलो को निबन्धानुकूल व्यवस्थित कर उन्होंने उसके विकास में महत्वपूर्ण योग दिया । निबन्ध को साहित्यिक रूप देकर हिन्दी में विदग्धसाहित्य प्रस्तुत करना उनका प्रथम लक्ष्य था । संस्कृतप्रधान शैली के प्रर्वतक होकर भी वे भावानुकूल शब्दचयन का ध्यान रखते थे । अतः जहाँ उन्होंने संस्कृत के शब्दों से काम चलता न देखा वहाँ उर्दू और अंग्रेजी के सशक्त शब्दों को अपना कर शैली को पूर्णतया प्रभावोत्पादक बनाया । जानसन, एडिसन और मैकाले से वे बहुत प्रभावित थे। निःसन्देह उनके निबन्ध भारतेन्दु के निबन्धों की अपेक्षा हिन्दीगद्य को अधिक परिमार्जित कर सके। पं० प्रतापनारायण मिश्र की-सी ग्राम्यता उनकी रचना में नहीं मिलती। BY