पृष्ठ:सरदार पूर्णसिंह अध्यापक के निबन्ध.djvu/४०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

भूमिका एक कदम और, और धम नीचे ! कारण इसका केवल यही है कि यह अब तक अटूट स्वप्न में देखता रहा है और निश्चय करता रहा है कि मैं रोटी के बिना जी सकता हूँ, हवा में पद्मासन जमा सकता हूँ । यह इसी प्रकार के स्वप्न देखता रहा, परन्तु अब तक न संसार ही की और न राम ही की दृष्टि में इसका एक भी बचन सिद्ध हुआ । यदि अब भी इसकी निद्रा न खुली तो बेधड़क शंख फूंक दो ! कूच का घड़ियाल बजा दो ! कहदो, भारतवासियों का इस असार संसार से कूच हुआ " , न यह अाक्रोश ही है और न चेतावनी ही, दुर्दशा की उमस में हृदयगगन में छाया हुआ देश-प्रेम का सघन घन बरस पड़ा है । और देखिए- "भारतनिवासियों ने एक प्रकार की पुड़िया और गोली बनाई है जिसको खाते ही चन्द्रमा चढ़ जाता है। ज्ञान हो जाता है। वह हो पास तो फिर कुछ दरकार नहीं होता। श्री जगत्वालो! बड़ी भारी ईजाद हुई है। छोड़ दो अपनी पदार्थ विद्या, जाने दो यह रेल, यह जहाज, ये नये नये उड़न खटोले, हवा में तैरनेवाले लोहे के जजीरे । प्रकृति की क्यों छानबीन कर रहे हो ? इससे क्या लाभ ? हृषीकेश में वह अनमोल गोली बिकती है, और सिर्फ दो चपाती के दाम, जिस गोली के खाने से सारे जन्म कट जाते हैं; सब पाश टूट जाते हैं, और जीवनमुक्त हो सारे संसार को अपनी उंगलियों पर नचा सकोगे; बिना नेत्र के, बिना बुद्धि के, बिना विद्या के, बिना हृदय के, बुद्धवाले निर्वाण, पतंजलिवाली कैवल्य, वैशेषिकवाली विशेष, वेदान्तवाली विदेह मुक्ति मिलती है । बेचनेवाले देखो वे जा रहे हैं, तीन चार पुस्तकें हाथ में हैं और तीन चार बगल में | श्रापको इन दो पुस्तकों के पढ़ने से ही ब्रह्म की प्राप्ति हो गई है, ज्ञान हो गया है ।" कर्म-विहीन दर्शन पर ऐसा करारा व्यङ्गय हो सकता है ? कबीर साहब अपनी वाणी को ४०