अध्यापक पूर्णसिंह के निबन्ध धोए मनुष्य, 5 , कथन की अपेक्षा करनी पर बल दिया है केवल देवता, ऋषि, योगी, महापुरुष बनने के लिए जोर नहीं दिया। इनका आदर्श था 'मानव'--साधारण मानव, दुनिया के प्रपञ्च से रहित सरल मानव- इसलिए ये कहते हैं "जब हम मनुष्य बन जायेंगे तब तो तलवार भी, ढाल भी, जप भी, तप भी, ब्रह्मचर्य भी, वैराग्य भी सब के सब हमारे हाथ के कंकणों- की तरह शोभायमान होंगे, और गुणकारक होंगे। इस वास्ते बनो पहले साधारण मनुष्य, जीते जागते मनुष्य, हँसते खेलते मनुष्य, नहाए प्राकृतिक मनुष्य, जानवाले मनुष्य, पवित्र हृदय, पवित्र बुद्धिवाले मनुष्य, प्रेमभरे, रसभरे, दिलभरे, जानभरे, प्राणभरे मनुष्य । हल चलानेवाले, पसीना बहानेवाले, जान गवानेवाले, सच्चे, कपट रहित, दरिद्रता रहित, प्रेम से भीगे हुए, अग्नि से सूखे हुए मनुष्य ।" और सचमुच ये ऐसे ही थे । अध्यापक जो का व्यक्तित्व इनके निबन्धों में सर्वत्र प्रतिबिम्बित हुआ है, बल्कि कहना उचित होगा कि उसके अतिरिक्त और उनमें है ही क्या ? जीवन के प्रति इनका दृष्टिकोण, नैतिक और सामाजिक मान्य- ताएँ, आर्थिक अादश, विभिन्न धर्मों के प्रति समन्वयात्मक भावना अादि तो उनमें आ ही गये हैं साथ ही इनकी सात्विकता, सरलता, देश-प्रेम ग्रादि के भाव भी स्थान-स्थान पर दीख पड़ेगे जिनसे रोच- कता ही नहीं, मर्मस्पर्शिता और प्रभावशालिता भी बढ़ गयी है । निबन्धों में उनका भावात्मक रूप प्रकट हुअा है फिर भी इन्हें केवल स्वप्न- द्रष्टा ही समझना भूल होगी । व्यावहारिक जीवन में ये कर्मठता के पक्षपाती हैं । यथार्थ में परिणत न हो सकनेवाला अादर्श इनकी दृष्टि में केवल मस्तिष्क का भार है, बल्कि इस भवसागर में गले में बँधी हुई शिला है जो एक दिन जरूर अपने साथ ले डूबेगी- "तारागणों को देखते देखते भारतवर्ष अब समुद्र में गिरा कि गिरा ।
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