भूमिका कह कर हमसे धर्म-युद्ध रचते और हमें इस देश से निकाल कर इस धरती को फिर से आर्यभूमि बनाते।" तुकदार शब्दों के प्रयोग और विरुद्ध-सी उक्तियों द्वारा भी इन्होंने कहीं-कहीं चमत्कार उत्पन्न किया है- "वे काली-काली मशीनें ही काली बनकर उन्हीं मनुष्यों का भक्षण कर जाने के लिए मुख खोल रही हैं। "कामनासहित होते हुए भी मजदूरी निष्काम होती है।" "कायर पुरुष कहते हैं-'आगे बढ़े चलो।' वीर कहते हैं- पीछे हटे चलो।" "राजा में फकीर छिपा है और फकीर में राजा, बड़े-बड़े पंडित में मूर्ख छिपा है और मूर्ख में पंडित, वीर में कायर और कायर में वीर होता है, पापी में महात्मा और महात्मा में पापी डूबा हुआ है ।” कहीं ध्वन्यात्मक प्रश्नों की झड़ी से और कहीं रूपक और उपमानों- की लड़ी से अपने वक्तव्य में जान डाल देना सरदार साहब को ग्बूव अाता था । यथार्थ विषयवस्तु इस प्रकार के स्थलों पर गति-हीन हो कर स्थिर-सी हो जाती है, फिर भी काव्यात्मक चमत्कार का प्रभाव पाठक के मन को रमाये रहता है- "तीक्ष्ण गरमी से जलेभुने व्यक्ति आचरण के काले बादलों की बूंदा बाँदी से शीतल हो जाते हैं। मानसोत्पन्न शरदऋतु से क्लेशातुर हुए पुरुष इसकी सुगन्धिमय अटल वसंत ऋतु के आनन्द का पान करते हैं । आचरण के नेत्र के एक अश्रु से जगत् भर के नेत्र भीग जाते हैं। श्राचरण के अानन्द नृत्य से उन्मदिष्णु होकर वृक्षों और पर्वतों तक के हृदय नृत्य करने लगते हैं।" लाक्षणिकता इनकी शैली का प्राण है । इस प्रकार का शैलीकार हिन्दी-जगत् में दूसरा नहीं हुअा यह स्वीकार करना ही पड़ेगा । वास्तव में इनकी लाक्षणिकता ऊपर से थोपी गयी वस्तु नहीं है अपितु भावा के
पृष्ठ:सरदार पूर्णसिंह अध्यापक के निबन्ध.djvu/४६
दिखावट