अध्यापक पूर्णसिंह के निबन्ध उमड़ते हुए सागर के शतमुख होकर बह निकलने से उसका समावेश खुद-ब-खुद हो गया है, ठीक उसी तरह जिस तरह उपमा, रूपक, स्मरण, विरोधाभास आदि अनेक अलङ्कार इनकी रचना में अनजाने ही जड़ गये हैं। इनका भाषाविषयक दृष्टिकोण अत्यन्त उदार रहा है । अंग्रेजी और उर्दू के साहित्य और भाषा का गहन अध्ययन इनकी शैली में अपना रङ्ग देकर फूटा है । अंग्रेजी साहित्य की अनेक साहित्यिक कृतियों एवं तदन्तर्गत पात्रों का यथास्थान संकेत करके तथा उर्दू कवियों की उक्तियाँ उद्धृत करके इन्होने अपने विषय की पुष्टि की है और उर्दू तथा अंग्रेजी के प्रचलित शब्दों को मुक्तहस्त स्वीकार कर अपनी शैली को ‘सैक्युलर' बना दिया है-नुस्खा, बदहज्मी, वे-सरो-सामान, नामोनिशान, दीदार, बर्फानी, समाँ, मयस्सर, तरोताजा, कलाम, गुस्ताखी, शिकस्त, जवाल, इलहाम, लिबास, अब्बल, पर्दानशीन, तूफान, कुदरत आदि अनेक शब्द इनकी रचना में मिलेंगे । संस्कृत के तत्सम, समस्त, सन्धिज सभी प्रकार के शब्द भी इनके निबन्धो में प्रयुक्त हुए हैं-उदारहृदया, सम्पन्ना, ज्यातिष्मती, मानसोत्पन्न, उन्मदिप्णु, गौरवान्वित, औदार्य आदि शब्द गिनाये जा सकते हैं किन्तु उर्दू के शब्दों की अपेक्षा ये बहुत कम अनुपात में प्रयुक्त हुए हैं। वास्तव में 'व्यावहारिक भाषा इनका लक्ष्य था, अतः जनसाधारण में प्रचलित बोधगम्य शब्दावली को ही इन्होंने अधिक प्रश्रय दिया है, संस्कृत के शब्द तो इनकी काव्योचित भावुकता की लपेट में खुद चले आये हैं । चोचला और फलाँग जैसे ठेठ बोलचाल के ग्रामीण, और वेरस जैसे द्विज शब्द भी इनकी रचना में मिल जाते हैं । 'मुख मोड़ना', 'खाक- छानना', 'समाँ बाँधना', 'आँखों में धूल डालना', 'कूच करना', 'मैदान हाथ में होना' आदि मुहावरों द्वारा भी शैली में सजीवता उत्पन्न करने का सफल प्रयास इन्होंने किया है । साराँश यह है कि भावों को अधिक से
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