भूमिका अधिक गम्य बनाने के लिए, जहाँ कहीं भी, जो कुछ भी साधन इन्हें मिला उसका इन्होंने बेहिचक प्रयोग किया है। बात शायद अधिक बढ़ती जा रही है, वास्तव में अध्यापक पूर्णसिंह के गिने चुने निबन्धों के वैशिष्य-उद्घाटन के लिए गिनी-चुनी पंक्तियाँ पर्याप्त नहीं, यह तो एक स्वतन्त्र पुस्तिका का विषय है, पर जब बात आ पड़ती है तो बहुत कम कहते-कहते भी बहुत कुछ हो जाता है। अतः दो एक आवश्यक बातों को अोर संकेत कर यह वक्तव्य समाप्त करना है। ऊपर सरदार साहब की शैली की विशेषताएँ बताने का प्रयास किया गया है। किन्तु इनके आधार पर यह नहीं समझ लेना चाहिए कि इनकी शैली में सब गुण ही गुण हैं । कहीं-कहीं पर इनका सबसे बड़ा गुण- भावुकता–ही भावों के मार्ग में आड़ा बनकर अड़ गया है और शैली का सबसे बड़ा दोष बन गया है । ऐसे स्थलों पर भाव रहस्यमय से हो गये हैं जो साधारण तो क्या विशिष्ट पाठक की पकड़ में भी मुश्किल से हो और शायद नहीं आ पायेगे । उदाहरण के रूप में पीछे उद्धृत बुद्धदेव और हाफिज शोराजी आदि वाला अवतरण प्रस्तुत किया जा सकता है । कहीं-कहीं तो इनकी भावुकता इतनी बढ़ गयी है और उसकी 'रमक' इतनी देर तक सवार रहती है कि सन्तुलित भावोंवाला पाठक गूढ तथा असम्बद्ध-से लम्बे-लम्बे भावमय कथनों को 'प्रलाप' जैसा समझने लग जाय तो आश्चर्य नहीं। भाषाविषयक स्खलन भी मिलते हैं । कहीं-कहीं कारकसूचक विभक्तियों का ऐसा जमघट हो गया है कि मूलभाव तक पहुंचने में पाठक को बड़ो कठिनाई होती है । यथा- "आचरण के विकास के लिये नाना प्रकार की सामग्रियों का, जो संसारसंभूत शारीरिक, प्राकृतिक, मानसिक और आध्यात्मिक जीवन में वर्तमान हैं, उन सबकी, (सबका )-क्या एक पुरुष और क्या n
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