पृष्ठ:सरदार पूर्णसिंह अध्यापक के निबन्ध.djvu/८१

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कन्या-दान भारत में बजाकर भोग लगाता हूँ । इनसे आशीर्वाद लेकर अपना हल चलाने जाता हूँ । इन पत्थरों में कई एक गुप्त भेद भी हैं । कभी कभी इनके प्राण हिलते प्रतीत होते हैं और कभी सुनसान समय में अपनी भाषा में ये बोल भी उठते हैं। भाई की प्यारी, माता की राजदुलारी, पिता की गुणवती पुत्री, . सखियों को अलबेली सखी के विवाह का समय समीप पाया । विवाह के सुहाग के लिए बाजे बज रहे हैं । सगुन मनाए जा रहे हैं। शहर और पास-पड़ोस की कन्यायें मिलकर सुरीले कन्या-दान की और मीठे सुरों में रात के शब्दहीन समय को रमणीय रीति बना रही है । सबके चेहरे फूल की तरह खिल रहे हैं । परन्तु ज्यों ज्यों विवाह के दिन नजदीक आते जाते हैं त्यों त्यों विवाह होनेवाली कन्या अपनी जान को हार रही है, स्वप्नों में डूब रही है । उसके मन की अवस्था अद्भुत है । न तो वह दुखी ही है और न रजोगुणी खुशी से ही भरी है। इस कन्या की अजीब अवस्था इस समय उसे अपने शरीर से उठाकर ले गई है और मालूम नहीं कहाँ छोड़ आई है । इतना जरूर निश्चित है कि उसके जीवन का केन्द्र बदल गया है । मन और बुद्धि से परे वह किसी देव-लोक में रहती है। विवाह-लग्न आ गई । स्त्रियाँ पास खड़ी गा रही हैं । अजीब सुहाना समय है । यथासमय पुरोहित कन्या के हाथ में कङ्कण बाँध देता है । इस वक्त कन्या का दर्शन करके दिल ऐसी चुटकियाँ भरता है कि हर मनुष्य प्रेम के अश्रुओं से अपनी आँखें भर लेता है जान पड़ता है कि यह कन्या उस समय निःसंकल्प अवस्था को प्राप्त होकर अपने शरीर को अपने पिता और भाइयों के हाथ में श्राध्यात्मिक तौर से सौंप देती है। उसकी पवित्रता और उसके शरीर की वेदनाबद्धक अनाथावस्था माता-पिता और भाई-बहन को चुपके चुपके प्रेमाश्रुओं से स्नान कराती है । कन्या न तो रोती है और न हँसती है, और न ८१