पृष्ठ:सरदार पूर्णसिंह अध्यापक के निबन्ध.djvu/९

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महानता को जाग्रत करना, राष्ट्र का निर्माण और कर्मठ बना। यद्यपि मैं जीवन के पचड़े में आकर्षित नहीं होता था तथापि जिसने मुझे आत्मज्ञान की इतनी बातें बतायीं, उसकी आज्ञा शिरोधार्य करके और अपनी रसायन शास्त्र की पुस्तकें फेंक फाँक कर मैं भारत की और चल पड़ा। उस समय सब बातों को देखते हुए मुझे महान् धर्म की प्राप्ति तथा उच्च जीवन की उच्च प्रगति के लिए अपने देश की अपेक्षा जापान अधिक उपयुक्त जान पड़े, लेकिन मैं क्या करता? उस हिन्दू संन्यासी ने जिस प्रचण्ड वाग्मिता के साथ मुझ में बिजली भरी थी, उससे प्रेरित होकर मैं मधूर बाद में भारत आकर ये स्वामी जी के साथ संन्यासी वेश में इधर-उधर घूमते लगे। ये कलकत्ता में संन्यासी वेश में घूम रहे थे, संसार मात्र ही इनका अपना घर था अपने देश लौटने