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पृष्ठ:सरदार पूर्णसिंह अध्यापक के निबन्ध.djvu/८

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"इसी समय जापान में एक भारतीय सन्त से जो भारत से आते थे मेरी भेंट हो गयी। उन्होंने एक ईश्वरीय ज्योति से मुझे स्पर्श किया और मैं संन्यासी हो गया। लेकिन मैं देखता हूँकि उन्होंने मेरे हृदय में और भी अनेकों भाव , जिनके लिए भारत के आधुनिक सन्त बहुत ब्यग्र है ं, भर दिया––जैसे भारत की