पृष्ठ:सरस्वती १६.djvu/३००

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- संम्या ३] हर्ट स्पेन्सर की प्रायमीमांसा। । यदि यह माना जाय कि रूप का ज्ञान हो सकता है मानते है कि सम्पूर्ण में सीमा या माधन म होने के तो यह भी मानना पड़ेगा कि ऐसी कोई वस्तु कारण उसका पूरा ज्ञान होना असम्भव है, परन्तु अयश्य है जिसके रूप का पान होता है, क्योंकि यह कहना कि सम्पूर्ण का प्रमाण ही सम्पूर्व है, षस्तु के बिना रूप की सम्भावना ही नहीं हो पह कोई स्यय सत्ता घाली यस्तु महीं, ठीक मही सकती। इसी तरह जब हम यह कहते हैं कि है। यदि ठीक हो तो 'अनन्त' शब्द का विलोम सम्पूर्ण का स्पष्ट मान नहीं हो सकता तब हम साथ शम 'अन्त' महाँ, किन्तु मेघ भी हो सकता है, ही माने यह भी कह देते है कि उसका प्रस्पष्ट पार अमेघ का विसोम-शम्य 'मेघ' नहीं, किन्तु भान अवश्य होता है। इस बात की सिय करने के प्रत्य मी शे सकता है । परन्तु यह तो हो ही मही लिग कि स्पष्ट धान के अतिरिक एक शाम ऐसा भी सकता । इस कारण सिर हुमा, कि प्रमाष मानने है जो स्पट तो नहीं है, परन्तु धुंधरा अयश्य है, से प्रस्तित्य का अस्पतामाघ नहीं माना जा सकता। वो धीज़ों का निर्णय करना होगा-अर्थात् एक तो वर्क शाल पाले भान को फेयल सीमा पार अन्योन्य-सम्पन्धी पस्सु का पार दूसरा उसका जिसे दशानों से सम्यर मानते हैं । उनका यह तर्क सम्पूर्ण कहते हैं। सभी जानते हैं कि किसी चीज़ सोप है। क्योंकि ये इसका कुछ भी ध्यान नहीं का टुकड़ा, उस प्री बीज के पराक्र नहीं होता। रमते कि इन सीमा पार दशा का कोई परन्तु पूरी चीज़ के पान के बिना टुकड़े का पान मापार भी है । इस प्राधार का स्पर प्रान तो नहीं होना असम्भव है। परापर पाली थीमों के यिना हो सकता, परन्तु उसके सत्य होने में कोई सन्देह बराबर का सान नहीं होता। इसी तरह सम्पूर्ण के महो। तर्कशाप्रवेसा सम्पूर्ण का होना तो मानते विना अन्योन्प-सम्बन्धी बीमों का पान महीं हो है, परन्तु यह कहते है कि उसका होना बुद्धि सकता । यह कहना ठीक नहीं कि इनमें से एक से सिर नहीं, अनुभप से सिर है। सारांश वस्तु सत्य है, दूसरी प्रसस्य, दामों पस्तुओं का यह कि सत्पाधार पस्तुओं का स्पर शान तो महीं सत्य होना भाषश्यक नहीं। जब हम परावर पार हो सकता, परन्तु उनके होने का यिभ्यास मन में । ना-बराबर कहते हैं तव ना-बराबर का मान बराबर प्रयक्ष्य रहता है। यह किसी प्रकार दूर नहीं हो के ममाय के सिया कुछ पार भी है। कल्पना फीजिए सकता। जैसे हारमोनियम वामे का एक अंश देखने कि एक बीज भव्य है पार एक प्रनष्प । प्रल्स पस्तु से उसका ज्ञान नहीं होता है, उसके अनेक प्रशो का मान पहले तो किसी वस्तु का धाम है, दूसरे का स्मयाल करने से हो सकता है, वैसे ही सम्पूर्ण उन सम्बन्धों का ज्ञान जिमसे यह पस्तु बंधी का साम भी पुदि के किसी एफ विचार से महीं हुई है। अमरूप के पान का भी यही हाल है। इसमें हो सकता, किन्तु पास से विचारों के मेल से हो पहली पात, अर्थात् यस्तु के होमे का मान, तो सकता है। प्रियश्य होता है, परन्तु जिम घम्धनी से पह पस्तु काल, प्रकाश पार कार–नकी सिदि थिंधी हुई है उसका ज्ञान नहीं हो सकता । इस मान करने में यह तर्क किया गया था कि जय इन्हें प्रस्त में पंक अंश सत्य का प्रयक्ष्य है। यह पेश उस पाले मानतं है, तव उस अन्त फी सीमा का जो पस्सु का होना है। सब यह अंश विद्यमान है तप प्रभाय है उसका विचार मन में उत्पन्न होता है। हमा प्रर्य फिसी पस्तु का प्रमाष कश्मे से घात होता इस लिए उन्हें पन्त पाले नहीं मान सकते। यदि है उससे यह प्रयं अधिक हुना। इस बात को हम ऐसा यिवार म उत्पन हो तो उन्हें पन्त पाले