पृष्ठ:सरस्वती १६.djvu/३१०

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संख्या ३] कोर्ट प्राप् पाईस इस कमी की पूर्ति के लिए और एक ऐसी प्रामदनी का माम "मपना" है । तिस पर तुर्रा यह कि नाच का मार्ग खोलने के लिए जो प्रनिश्चित हो, ये लोग तसलिये में होता है। बेचारी प्रजा उसे देखने भी मात बात पर मजराना धसूस करने की प्रथा का महीं पाती। चलाते हैं। ऐसे वसूल का पता घलना कठिन होता ऐसे अनेक फरों का उल्लेख हम कर सकते है। है। पौर, फिर, कानूम के विरुय होने से मालिक परन्तु विस्तारमय से केवल एक पर का ज़िक भी स्यभाषता उसे लिपाने की चेष्टा करता है। करेंगे। एक रियासत में हमने ऐसा कि रुपया ऐसी मामदमी का ओ पोड़ा बात अंश मालिक उपार देने का अजीब रिवाज है। रुपक को माघ- को मिल जाता है यह उसी को गनीमत समझता इयकता हो या न हो, उसकी हैसियत के अनुसार है और अपने कर्मचारियों को उसके लिए धन्यवाद उसे रुपया पूर्ज दिया ही माता है। यह लेने से देता है। ठोटे लोग इस तरह के अनेक नियम- इमकार ही क्यों न करे, उसके घर स्वयं के लिए यिकद काम करने का परामर्श मालिक को दिया रुपया रसस्वा ही क्यों न रहे-चाहे यह स्वयं महा- करते हैं। जो मालिक उनकी बात को लेोमवश जनी क्यों न करता हो-परन्तु र्रास का रुपया स्वीकार कर सेता है उसी के यहाँ ऐसे लोग सुम उसे उधार छेमा ही पड़ेगा। यदि कोई पूछे कि से रहते है। पर उनके सुख से कहीं अधिक दुाल ऐसा क्यों किया जाता है, तो उत्तर यही है कि र्रास प्रजा को पहुंचता है। लूट, मसोट, बेगार (जिसका साहब दो भाना फी रुपया मासिक सूद के लोम माम इन लोगों मे "अधिकार" रस अमा) श्रादि से ऐसा करते हैं। एक बात पर भी है। र्रास से पीड़ित प्रज्ञा मागने लगती है। यह अपने आपमे अगर चाहे तो पर्व के रुपये के पदले वाज़ार-माय जोस से इस्तीफा दे देती है। इससे भूमि पर माती से ऽ१ प्रभिक मनाम से सफसा है। जमींदार पार है, उसकी हसियत बिगड़ जाती है, पदावार कम रुपक का सम्मम्भ दिम पर दिम शोचनीय होता आती है। इन कारणों से प्रजा के लिए सदा जाता है। जमींदार की जरूरतें बढ़ती जाती है। पुर्मिक्ष ही सा बना रहता है। इन काररषाइयों से प्रती में उप्रति महीं होती। जमींदार के लिए रियासत को मारी हानि पहुँचती है-ऐसी हानि मामदनी का पीर काई जरिया नहीं। फल यह खिसकी पूर्ति नहीं हो सकती। होता है कि बेचारे फरक पीसे माते हैं। जहां तक पाठको के विमोदार्थ हम एक ऐसे कर का हमें मालूम है, ऐसे कार्यों में अमांदार के सहा- उल्लेम करते है जिसको पहले पहल एक रियासत यता ने पाले, पक्कि उसे उकसाने यासे, छोटे मे देस कर लेखक को पड़ा कोतूहल हुना था। मनुप्य ही होते है, ओ सय रांस के चारों पोर परम्सु पीछे से खान पड़ा कि उसी रियासत में नहीं, घिरे रहते है पर जिनसे उसे कभी छुटकारा नहीं किन्तु पार भी अनेक रियासतों में यह जारी है। मिलसा । यदि ये लोग ज़मीदार को सन्मार्ग पर पह कर उस रियासत में "नयमा" के नाम से पलाना चाह-पाये ये उसे नियम-विषय कार्य न मशहूर है। कुछ पेश्यामों पर रियासत के मालिक करने की सलाह देते रहें तो यह कदापि सम्मष की छपा है। उनको तथा पौर मी दो चार को मही कि फपि की यह मूलाग्छेदक प्रथा जीती पुला कर ये हाली पर मचाते हैं। जससे में पतस- रखे। परन्तु उसके मूलोछेद से हम छोटे लोगों की पासिनी देयो भी पधारती है। यह सारा सर्व प्रमा हानि है। फिर मला ये ऐसा क्यों करने लगे। ऐसे से ही कर के रूप में पसूस किया जाता है। उसी स्थार्थो लोग रियासतों में गरोह बांध फर रहते है। . r