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सर्वोदय

किये बिना धन बटोरने के नियम बनाना केवल मनुष्य का घमण्ड दिखाने वाली बात है। "सस्ते से-सस्ता खरीदकर महंगे-से-महंगा बेचने" के नियम के समान लज्जाजनक बात मनुष्य के लिए दूसरी नहीं है।" सस्ते-से-सस्ता लेना" तो ठीक है, पर भाव घटा किस तरह? आग लगने पर लकड़ियाँ जल जाने से जो कोयला बन गया है वह सस्ता हो सकता है। भूकम्प के कारण धराशायी हो जाने वाले मकानों की ईंटें सस्ती हो सकती है। किन्तु इससे कोई यह कहने का साहस नहीं कर सकता कि आग और भूकम्प की दुर्घटनाये जनता के लाभ के लिए हुई थी। इसी तरह "महगे से महंगा बेचना" भी ठीक है, पर महंगी हुई कैसे? आपको रोटी के अच्छे दाम मिले। पर क्या आपने वह दाम किसी मरणासन्न मनुष्य की अन्तिम कौड़याँ लेकर खड़े किये है? या आपने वह रोटी किसी ऐसे महाजन को दी है