पृष्ठ:सह्याद्रि की चट्टानें.djvu/१००

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फैली थीं। दूसरे हब्शी थे-जो पूर्व में करनूल परगने और रायचूर दुआब के एक भाग वाले प्रदेश पर शासन करते थे। तीसरे महदवी सम्प्रदाय के सदस्य थे। चौये नवागत अरव मुल्ला थे-जिनकी जागीरें कोंकण में फैली हुई थीं। राज्य के हिन्दू पदाधिकारी और आश्रित हिन्दू राजाओं की गणना दलित जातियों में होती थी। राज्य पर अधिकार रखने वाले ये सारे ही राजकीय अधिकारी विदेशी थे, जो यहीं बस कर वंश परम्परागत सामन्त-सरदार बन बैठे थे। प्रत्येक दल वाले अपनी ही जाति में विवाह करते थे, जिससे वे यहां की स्थानीय प्रावादी में सम्मिलित नहीं हो सके, और न विदेशी शासक अधिकारियों का यह दल कभी राज्य-शासन का अविभाज्य अङ्ग बन सका । उनका एकमात्र उद्देश्य निजी स्वार्थ था। उनमें देशभक्ति की भावना न थी, क्योंकि वह देश उनका अपना न था। वे राजनैतिक खानावदोश थे। मुहम्मद आदिलशाह के शासनकाल में बीजापुर राज्य का विस्तार चरम सीमा पर पहुंच चुका था। अरव सागर से बङ्गाल की खाड़ी तक सारे भारतीय प्रायद्वीप में वह फैला हुआ था। उसकी वार्षिक आय ७ करोड ८४ लाख रुपए थी। इसके अतिरिक्त आधीन जमींदार और राजाओं से सवा ५ करोड़ रुपयों की रकम टाँके में मिलती थी। उसकी सेना में ८० हजार घुड़सवार, ढाई लाख पैदल और ५३० लड़ाकू हाथी थे। सन् १६७२ में अली आदिलशाह द्वितीय मर गया और उसके साथ ही बीजापुर राज्य का सारा गौरव भी लुप्त हो गया। हब्शी खवासखाँ ने राज्य-सत्ता हथिया ली और आदिलशाह वंश के अन्तिम सुलतान वा तक को राज्य-सिंहासन पर बैठाकर मनमानी करने लगा। भूतपूर्व वजीर अजीर मुहम्मद खिन्न होकर दरबार से चला गया और राजतन्त्र का तेजी से पतन होने लगा।