पृष्ठ:सह्याद्रि की चट्टानें.djvu/१०१

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३७ अर्द्ध रात्रि की सभा अर्द्धरात्रि व्यतीत हो रही थी। राजगड़ में एक अत्यन्त महत्व- पूर्ण राजसभा का अधिवेशन हो रहा था। शिवाजी के सभी मुख्य राज- कर्मचारी, मन्त्री, सेनापति, न्यायशास्त्री उपस्थित थे। तानाजी मौलसरे ने आँखों में आँसू भरकर तलवार पर हाथ पटक कर कहा-"हाय महा- राज, हिन्दू गौरव की रक्षा के लिए वर्षों से हनने नींद और भूख तथा दुःसह कष्टों की परवाह न कर जो कर्तव्य पालन किया, वह सब आज विफल हो गया ।" "निष्फल नहीं हो रहा वीरवर, सफल हो रहा है। हम स्वप्न से सत्य जगत में आए हैं।" "परन्तु आप आत्मसमर्पण कर दिल्लीश्वर को सलाम करने जा "आत्मसमर्पण केदल शिवा ने किया है, मराठों ने नहीं। मेरे आत्मसमर्पण का लाभ उठाकर तुम अपनी तलवारों की धार और तेज कर लो । आज मैं दिल्ली जा रहा हूँ। कल उनकी जरूरत पड़ेगी। पेशवा, तुम क्या कहते हो ? क्या मैं दिल्ली न जाऊँ।" शिवाजी ने अपने बालसखा और मन्त्री सोमेश्वर से पूछा । "जाइए महाराज, किन्तु यह न भूलिए कि सह्याद्रि की उत्तुङ्ग शैल आपके लौटने की बाट देखती रहेंगी और हम कान खड़े करके सह्याद्रि की घाटियों में गूंज उठने वाली ध्वनि की प्रतीक्षा करेंगे कि हिमालय से कन्याकुमारी तक हिन्दू राज्य की स्थापना के लिए छत्रपति ने अपनी तलवार म्यान से बाहर कर ली है।" ES