पृष्ठ:सह्याद्रि की चट्टानें.djvu/१२०

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हथेली पर रखते हुए कहा-"रामसिंह से मिलते रहो तथा दरबार में और मित्रों को भी पैदा करो।" "महाराज जसवन्तसिंह की हम पर कृपा है।" अशफियां परखते हुए तानाजी ने कहा और अपना सामान समेट कर चलते बने । बाहर आकर हँसते हुए पहरेदारों की हथेली पर दो अशर्फियां रखते हुए उन्होंने कहा- "अमल पानी के लिए रख लो। महाराज से मुनाफे का सौदा हुआ है । फिर आऊँगा तो और इनाम दूंगा।" पहरेदार खुश हो गए । तानाजी वहाँ से नौ-दो ग्यारह हुए। ४५ कांटे से कांटा अब दो धूर्त कूटनीतिज्ञों की राजनैतिक शतरंजों की चालें चलनी प्रारम्भ हुईं। औरङ्गजेब जैसा सुभट साहसी योद्धा था, उसका सामना करने वाले वीर तो राजपूतों में थे परन्तु उस जैसे कुटिल धूर्त की धूर्तता से समता करने वाला कोई हिन्दू सरदार न था। शिवाजी ही ऐसे पहले हिन्दू थे जो काँटे से कांटा निकालने में चतुर थे। औरङ्ग- जेब ने शिवाजी को आगरे में बुलाया, अपमान किया और कैद कर लिया । सम्भवतः वह उन्हें मार भी डालता। कुछ दिन चुप रहने के बाद शिवाजी ने अपने पुत्र शम्भाजी को दरबारेशाही में एक अर्जी देकर कुंवरं रामसिंह के साथ भेजा । अर्जी में लिखा था कि बादशाह यदि मुझे आगरे में अभी रोक रखना ही चाहते हैं तो मेरी सेना और सरदारों को वापस देश भेज दिया जाय क्योंकि मैं अब शाही सुरक्षा में हूँ। मुझे सेना की तथा सरदारों की आवश्यकता नहीं है । इसके अतिरिक्त मेरे पास इतना खर्च भी नहीं है कि आगरे में उन्हें रख सकू। मैं बादशाह को भी खर्च के लिए कष्ट देना नहीं चाहता।.