औरङ्गजेब ने शिवाजी की इस प्रार्थना को गनीमत समझा। उसने शिवाजी को असहाय करने के विचार से उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली । सेना और सरदारों को महाराष्ट्र लौटने की आज्ञा दे दी गई। शिवाजी ने अपने मुसलमान जेलर सिद्दी फौलादखाँ से दोस्ती गांठ ली । प्रतिदिन कोई नया तोहफा उसे भेंट में देते, खूब खुश होकर आगरे की तारीफ करते। उनकी बातचीत का अभिप्राय यही था कि यहाँ मैं बहुत खुश हूँ। दक्षिण के सूखे पहाड़ों में मैं लौटना नहीं चाहता। फौलादखाँ की रिपोर्ट पर बादशाह भी सन्तुष्ट हो गया। शिवा- जी पर से बहुत-सी पाबन्दियाँ हटा ली गई। पहरे की कड़ाई भी कम हो गई । कुछ दिन बाद शिवाजी ने एक और अर्जी बादशाह को भेजी, उसमें लिखा था कि मुझे अपने स्त्री-बच्चों को आगरे बुलाने की अनुमति दे दी जाय। इससे वादशाह और भी निश्चिन्त हो गया, परन्तु अर्जी पर कोई हुक्म नहीं दिया। कुछ दिन बाद उन्होंने लिखा- "मैं फकीर होकर किसी तीर्थ में दिन व्यतीत करना चाहता हूँ।" इस पर वादशाह ने हँस कर जवाब दिया-"खयाल अच्छा है, फकीर होकर प्रयाग के किले में रहो । बहुत बड़ा तीर्थ है। वहां मेरा सूबेदार बहादुरखां तुम्हें हिफा- जत से रखेगा।" परन्तु इसके बाद ही शिवाजी बीमार पड़ गए। बीमारी बढ़ती ही गई । शाही हकीम आए, आगरे के नामी-गरामी हकीम आए, दवा- दारू चली मगर रोग को आराम न हुआ । बादशाह को प्राशा हुई कि यह पहाड़ी चूहा इसी बिल में मर जायगा। परन्तु शिवाजी न मरे, न अच्छे हुए। शिवाजी ने नगर में ढिंढोरा पिटवा दिया--शिवाजी मरहठा आगरे में वहुत बीमार हैं । जो कोई उन्हें आरोग्य करेगा, उसे सोने से तोल दिया जायगा। दूर-दूर के हकीम बड़े-बड़े चोगे पहन कर और लम्बी-लम्बी डाढ़ी ११६
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