कर रहे थे। तानाजी के पुत्र का विवाह था । द्वार पर नौबत वज रही थी। आगत जनों की काफी भीड़ थी। सन्ध्या होने में अभी विलम्ब था। एक श्रमिक, शिथिल साँड़नी सवार ने नगर में प्रवेश किया। थोड़े-से वालक कौतूहल-वश उसके पीछे हो लिए। ग्राम के चौराहे पर जाकर उसने अपनी बगल से छोटी-सी तुरही निकाल कर फूंकी। देखते-देखते दस-बीस नर-नारी और बहुत से वालक एकत्र हो गए। सवार ने एक वृद्ध को लक्ष्य करके कहा-"मुझे तानाजी मकान पर अभी पहुँचना है ।" तुरन्त दस-पाँच आदमी साथ हो लिए। सन्मुख ही तानाजी का पर था। वहाँ पहुँच कर उसने फिर तुरही बजाई । कोलाहल वन्द हो गया । सभी व्यत्र होकर आगन्तुक को देखने लगे। उसने जरा उच्च स्नर से पुकारकर कहा- "छत्रपति शिवाजी महाराज की जय हो । मैं तानाजी के पास महाराज का अत्यावश्यक सन्देश लेकर आया हूँ। तानाजी अभी चानकर महाराज से मुलाकात करें।" उपस्थित जन-मण्डल ने चिल्लाकर कहा-"छत्रपति महाराज की जय।" हल्दी से शरीर लपेटे, व्याह का कंगना हाथ में बाँधे पुत्र को छोड़कर तानाजी बाहर निकल आए। धावन ने उन्हें पत्र दिया । पत्र पढ़कर तानाजी क्षण भर को विचलित हुए। इसके बाद ही उन्होंने अग्निमय नेत्रों से उपस्थित जन-समूह को देखा। वह उछलकर एक ऊँचे स्थान पर चढ़ गए, और उन्होंने गंभीर व उच्च स्वर से कहना प्रारम्भ किया--"सज्जनो ! महावीर छत्रपति महाराज ने मुझे इसी क्षण बुलाया है । यह शरीर और प्राण महाराज का है। फिर वहिन के प्रतिशोध का भी यही महायोग है। मैं इसी क्षण जाऊँगा । आप लोग कल प्रातःकाल ही प्रस्थान करें। विवाह समारोह अनिश्चित समय के लिए स्थगित किया गया।" । १४७
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