पृष्ठ:सह्याद्रि की चट्टानें.djvu/१५७

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अव फिर सेना में घमासान मच गया। उदयभानु की राजदूत सेना और यवन-सेना परास्त हुई। सूर्योदय से पूर्व ही किले पर भगवा झण्डा फहराने लगा । तोपों की गर्जना से पहाड़ियाँ थर्रा उठीं। लाशों के ढेर से तानाजी का शरीर निकाला गया। अभी तक उसमें प्राण था। थोड़े उपचार से होश में आकर उन्होंने कहा-"क्या किला फतह हो गया ?" "हाँ महाराज।". “यवन सेनापति क्या जीवित है ?" यवन सेनापति भी जीवित था। उसका शरीर भी वहीं था। तानाजी ने क्षीण स्वर में पुकारा–“यवन सेनापति !" "काफिर ?" "पहचानते हो?" "दुश्मन को पहचानना क्या है ? तुम कौन हो ?" "पन्द्रह वर्ष प्रथम जिसे आक्रान्त करके तुमने उसकी बहन का हरण किया था ।" सेनापति उत्तेजना के मारे खड़ा हो गया। फिर धड़ाम से गिर उसके मुख से निकला--"तानाजी ?" "आज बहन का बदला मिल गया।" यवन-सेनापति मर रहा था, उसका श्वास ऊर्ध्वगत हो रहा था, और आँखें पथरा रही थीं। उसने टूटते स्वर में कहा-"तुम्हारी हमशीरा और बच्चे इसी किले में हैं, उनकी हिफाजत... यवन-सेनापति मर गया। तानाजी की दशा भी अच्छी नहीं थी, ये शब्द मानो वह सुन नहीं सके। उन्होंने टूटते स्वर में कहा- "महाराज से कहना, तानाजी ने जीवन सफल कर लिया। महाराज बहिन की रक्षा करें तथा जगतसिंह का वचन पूरा करें।" तानाजी ने अन्तिम श्वास ली। गया, १५५