पृष्ठ:सह्याद्रि की चट्टानें.djvu/१५६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

का भी एक भरपूर हाथ पड़ा। दोनों वीर एक साथ गिर कर गुथ गए : इसी समय सूर्याजी ने उदयभानु का सिर काट लिया। हर-हर महादेव करती हुई महाराष्ट्रीय सेना मारकाट करने लगी। वड़ा भारी घमासान मच गया। रुण्ड-मुण्ड डोलने लगे । घोड़ों की चीत्कार, योद्धाओं की ललकार और तलवारों की झनकार ने भयानक दृश्य उपस्थित कर दिया। इसी समय खान पठानों की सेना को लेकर आगे बढ़ा । जगतसिंह ने संकेत किया। तानाजी ने ललकार कर कहा-'इधर आ यवन सेनापति, मद की भाँति युद्ध कर । आज बहुत दिन का लेन-देन चुकाऊँगा।" यवन सेनापति ने जोर से कहा-"काफिर, मैं यहाँ हूँ। सामने. पा, गरीब सिपाहियों को क्यों कटाता है।" तानाजी उछलकर खान के सन्मुख गए। दोनों में घमासान युद्ध होने लगा। दोनों तलवार के धनी थे । पर तानाजी घायल थे। मशालों धुंधले प्रकाश में दोनों योद्धाओं का असाधारण युद्ध देखने को सेना स्तब्ध खड़ी हो गई। तानाजी ने कहा- "सेनापति, पहले तुम वार करो, आज मैं तुम्हें मारूंगा।" "काफिर, अभी तेरे टुकड़े किए डालता हूँ।" उसने तलवार का भरपूर वार किया। "अरे यवन, आज बहुत दिन की साध पूरी होगी।" बदले में तलवार का जनेवा हाथ फेंकते हुए तानाजी ने कहा--"लो।" सेनापति के मोढ़े पर तलवार लगी, और रक्त की धार बहने लगी। उसने तड़पकर एक हाथ तानाजी की जाँघ में मारा । जाँघ कट गई। तानाजी ने गिरते-गिरते एक बर्छा सेनापति की छाती में पार कर दिया। दोनों वीर घोड़ों से गिर पड़े। १५४.