पृष्ठ:सह्याद्रि की चट्टानें.djvu/२४

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1 तलवार सुवा देते थे। अंत में युवक का दम बिलकुल फूल गया। उसने तलवार गुरु के चरणों में रख दी, और स्वयं भी लोट गया । गुरु ने उसे छाती से लगाया और कहा-"वत्स, आज ही श्रावणी पूर्णिमा है, महाराज अभी आते होंगे । आज तुम्हें इस सन्यासी को त्यागना होगा और जिस पवित्र व्रत को तुमने लिया है, उसमें अग्रसर होना होगा। यद्यपि मैं जैसा चाहता था, वैसा तो नहीं, पर फिर भी तुम पृथ्वी पर अजेय योद्धा हो, तुम्हारी तलवार और बर्खे के सम्मुख कोई वीर स्थिर नहीं रह सकता।" युवक फिर गुरु-चरणों में लोट गया। उसने कहा-"प्रभो, अभी मुझे और कुछ सेवा करने दीजिए।" "नहीं, वत्स ! अभी तुम्हें बहुत कार्य करना है, उसकी साधना ही मेरी चरण-सेवा है।" हठात् वज्र-ध्वनि हुई-"छत्रपति महाराज शिवाजी की जय ।" दोनों ने देखा, महाराज घोड़े से उतर रहे हैं। उन्होंने धीरे- धीरे आकर सन्यासी की चरण-रज ली और सन्यासी ने उन्हें उठा कर आशीर्वाद दिया। युवक ने आकर महाराज के सम्मुख घुटनों के बल बैठकर प्रणाम किया। महाराज ने कहा-"युवक, आज वही श्रावणी पूर्णिमा है।" "जी।" "आज उस घटना को तीन वर्ष हो गए, जब तुम्हें घायल करके शत्रु तुम्हारी बहन को हरण कर ले गए थे, तुम्हें स्मरण है ?" "हां महाराज, और आपने मुझे जीवन-दान दिया था, मैंने यह प्राण और शरीर आपको भेंट किए थे।" "और तुमने प्रतिशोध की प्रतिज्ञा की थी ?" "जी हां।" २२