पृष्ठ:सह्याद्रि की चट्टानें.djvu/२३

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युवक ने माये का पसीना पोंछकर पीछे फिरकर देखा। एक जटिल संन्यासी तीव्र दृष्टि से युवक को ताक रहे थे। युवक ने सिर झुका लिया । सन्यासी अग्रसर हुए। उन्होंने ब→ को क्षण भर तौला और विद्युत्-वेग से फेंक दिया। वा स्थूल वृक्ष को चीरता हुआ क्षण भर ही में धरती में घुस गया। उत्साहित होकर युवक ने एक ही झटके में वळ उखाड़ा, और महावेग मे फेंका । इस बार वी वृक्ष को चीरकर धरती में घुस गया। सन्यासी ने मुस्कराते हुए कहा- "हां, यह कुछ हुआ। वत्स, मैं तो वृद्ध हुअा, युवक-सा पौरुष कहां ? हां, तुम अभी और भी स्फूर्ति उत्पन्न करो।" युवक ने गुरु के चरणों में प्रणाम किया, और दोनों ने तलवार निकाल ली। प्रथम मंद, फिर वेग और उसके बाद प्रचंड गति से दोनों गुरु-शिष्य तलवारें चलाने लगे, मानो विजलियां टकरा रही हों। दोनों महाप्राण पुरुष पसीने से लथपथ हो गए । श्वास चढ़ गया, परन्तु उनका युद्ध-वेग कम न हुआ। दोनों ही चीते की भांति उछल-उछल कर वार कर रहे थे। तलवार झनझना रही थीं। गुरु ने ललकार कर कहा- "बेटे, लो, एक सच्चा वार तो करो । देखें शत्रु को तुम किस भांति हनन करोगे।" युवक ने आवेश में आकर सन्यासी के मोढ़े पर एक भरपूर वार किया । सन्यासी ने कतराकर एक जनेवा का हाथ जो दिया तो युवक की तलवार झन्नाकर दस हाथ दूर जा पड़ी। सन्यासी ने युवक के कंठ पर तलवार रख कर कहा-"वत्स बस, यही तुम्हारा कौशल है ? इस समय शत्रु क्या तुम्हें जीवित छोड़ता ?" युवक ने लज्जा से लाल होकर गुरु के चरण छूए, और फिर तलवार उठा ली। इस बार उसने अंधाधुन्ध वार किए, पर सन्यासी मानो विदेह पुरुष थे । उनका शरीर मानो दैवकवच से रक्षित था। वह वार बचाते, युवक को सावधान करते और तत्काल उसके शरीर पर ।