पृष्ठ:सह्याद्रि की चट्टानें.djvu/३१

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- १२ भवानी का प्रसाद महाराज बैठे-बैठे ऊँघ रहे थे। पीछे दो शरीर-रक्षक चुपचाप खड़े थे । तानाजी ने सम्मुख आकर कहा-"महाराज की जय हो, कूच का समय हो गया है, सेना तैयार है।" महाराज चौंककर उठ बैठे। वह चमत्कृत थे। उन्होंने कहा- "तानाजी ?" "महाराज" "मुझे भवानी ने स्वप्न में आदेश दिया है।" "कैसा आदेश है, महाराज?" "यह सम्मुख मन्दिर की पीठ दिखाई पड़ती है न ?" "हां महाराज !" "अभी मैं बैठे-बैठे सो गया। इसमें वह जो मोखा है, उसमें से रत्नजटित गहनों से लदा हुआ एक हाथ निकल कर इसी स्थान की ओर संकेत करता है, मैंने स्पष्ट सुना, किसी ने कहा, यहीं खोदो।" "महाराज की क्या आज्ञा है ?" "भवानी का आदेश अवक्ष्य पूरा होना चाहिए। उस स्थान को खुदवाओ।" तत्काल चार वेलदारों ने खोदना प्रारम्भ किया। देखते-देखते वड़ा भारी गहरा गड्ढा हो गया। मिट्टी का ढेर लग गया। तानाजी ने ऊब कर कहा-"महाराज, अव केवल एक पहर रात्रि रही है।" "ठहरो, क्या नीचे मिट्टी-ही-मिट्टी है ?" भीतर से एक वेलदार ने चिल्लाकर कहा-"महाराज ! पत्थर पर कुदाल लगा है।"