पृष्ठ:सह्याद्रि की चट्टानें.djvu/३०

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५ और इतनी ही तलवारें हैं । सभी हथियार फ्रांस देश के बने हुए हैं । और भी युद्ध-सामग्री है।" महाराज ने मंद हास्य से पूछा- "उनका मूल्य क्या है ?" "महाराज को मैं यह सब १० लाख रुपये में दे दूंगा। यद्यपि माल बहुत अधिक मूल्य का है।" महाराज की दृष्टि विचलित हुई । परन्तु उन्होंने दृढ़, गंभीर स्वर से कहा-"मैं कल इसी समय इसका उत्तर दूंगा । अभी तुम विश्राम करो।" फिरंगी चला गया । महाराज अत्यन्त चंचल गति से टहलने लगे। रात्रि का अंधकार आया । तानाजी मसालें लिए किले की मरम्मत में संलग्न थे । महाराज ने उन्हें बुलाकर कहा-"तानाजी, अब समय आ गया । अभी सारी सेना को तैयार होने का आदेश दे दो।" "जो आज्ञा महाराज, कूच कहां करना होगा ?" "इस फिरंगी का जहाज लूटना होगा।" तानाजी आंखें फाड़-फाड़ कर देखने लगे। क्षण भर बाद वोले- "महाराज की जय हो ! यह क्या आज्ञा आप दे रहे हैं ?" महाराज ने लपककर, तानाजी की कलाई कसकर पकड़ली। उन्होंने कहा-“युवक सेनापति ! देखते हो, दुर्ग छिन्न-भिन्न और अरक्षित है । सेना के पास न शस्त्र, न घोड़े, और खजाने में इनको देने के लिए एक मुट्ठी चना भी नहीं। उधर विजयिनी यवन सेना बीजापुर से घावा मारकर आ रही है। क्या मैं समय और उपाय रहते पिस मरूं ? ये हथियार भवानी ने मुझे दिए हैं । छोडूंगा कैसे ? उस फिरंगी को कैद कर लो। उसे रुपया देकर मुक्त कर दिया जायगा । जाओ, सेना को अभी तैयार होने का आदेश दो। ठीक दो पहर रात्रि व्यतीत होते ही कूच होगा।" तानाजी कुछ कह न सके। वह सेना आदेश देने चल दिए। २८