पृष्ठ:सह्याद्रि की चट्टानें.djvu/४६

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के लिए समाप्ति हो गई और दक्षिण में अब तक जो मुसलमानी राज्यों का नेतृत्व अहमदनगर से होता था, उसका भार बीजापुर पर आ पड़ा। परन्तु इसी समय दक्षिण में मुगलों ने पदार्पण किया । सत्रहवीं शताब्दी के दक्षिण भारतीय इतिहास की यह महत्वपूर्ण घटना थी। सोलहवीं शताब्दी के द्वितीय चरण में ही यद्यपि मुगल साम्राज्य की दक्षिणी सीमा निर्धारित हो चुकी थी पर अब बीजापुर का दक्षिण में अकेला डंका बज रहा था। इस समय वह अपनी उन्नति की चरम सीमा पर था और उसका राज्य भारतीय प्रायद्वीप के दोनों समुद्री तटों तक फैल गया था, तथा उसकी राजधानी कला, साहित्य, धर्म और विज्ञान की उन्नति का केन्द्र बन गई थी। परन्तु इस राज्य के संस्थापक योद्धा- सुलतानों का उत्तराधिकारी अब युद्धभूमि और घोड़े की सवारी से मुंह मोड़कर दरबारी शान और अन्तःपुर के विलास में डूब चुका था, और इसका परिणाम यह हुआ था कि आदिलशाही सुलतान की मृत्यु के बाद दक्षिण की अवशिष्ट मुसलमानी रियासतें तेजी से मुगल साम्राज्य के आधीन होती चली जा रही थीं। इसी समय दक्षिण भारत की राजनीति में मराठों का उदय होने से वहां की राजनीति में अकित उलटफेर हुए । मराठे चिरकाल से दक्षिण भारत में रहते आ रहे थे और शताब्दियों से अपनी ही जन्मभूमि में विदेशी मुस्लिम शासकों की प्रजा थे। न तो उनका कोई राजनैतिक संगठन ही था, न उन्हें कोई अधिकार ही प्राप्त थे । इन बिखरे हुए मराठों को संगठित कर एक जाति में परिणत करके उन्हें मुगल साम्राज्य पर चोट करने की योग्यता औरङ्गजेब के प्रतिद्वन्द्वी शिवाजी ने प्रदान की। सोलहवीं शताब्दी के अन्तिम चरण में सम्राट अकबर ने विन्ध्याचल से आगे कदम रखकर दक्षिण की ओर रुख किया था । उसके बाद बीजापुर और गोलकुण्डा के राज्यों पर निरन्तर आघात होते रहे । और उनका अस्तित्व मिटाकर उन्हें मुगल साम्राज्य में मिलाने के बने हुए