पृष्ठ:सह्याद्रि की चट्टानें.djvu/४९

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राई तक नहीं गई और उनका प्रजा की अन्तरात्मा पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। कठोर भूमि पर रहने के कारण मराठों के चरित्र में जो विशे- षताएं पैदा हुईं, उनमें स्वाधीनता की भावना, निर्भयता, सादगी और शारीरिक स्फूर्ति महत्वपूर्ण थीं। महाराष्ट्रीय जाति आर्यों और द्रविड़ों के मिश्रण से उत्पन्न हुई थी, इसलिए उसके खून में आर्यों की सानाज़ि- कता और द्रविड़ों की उद्दण्डता घर कर गई थी। महाराट्रियों के धार्मिक विचारों पर भी सादगी का असर था। उत्तर भारत के हिन्दू जात-पात के वन्धन में फंसे थे, धर्म पर ब्राह्मणों की ठेकेदारी थी, देश की रक्षा करना केवल क्षत्रियों का काम समझा जाता था, परन्तु महाराष्ट्र में ऐसा न था। वहां एक राष्ट्र-धर्म, राष्ट्रीय एकता के बीच पनप रहा था जिसे आगे धर्म और नीति के सुधारक - जनों ने पल्लवित किया । उस युग के महाराष्ट्रीय सुधारकों में सबसे प्रथम हम ज्ञानदेव का नाम लेंगे। उनका जन्म उस समय हुआ जब देवगिरि के यादवों का दक्षिण में भाग्य-सूर्य मध्याकाश में था। उस समय से लेकर शिवाजी के जन्म काल तक ५०० वर्षों में लगभग ५० ऐसे भक्त और सन्त पैदा हुए जिन्होंने जनता में वह विचार-क्रान्ति पैदा की कि जिसके फलस्वरूप शिवाजी अपना महाराज्य स्थापित कर सके। चांददेव, ज्ञानदेव, निवृत्ति, मुक्ताबाई, अकाबाई, तुकाराम, नामदेव, एकनाथ, रामदास, शेख मुहम्मद, दामाजी, भानुदास, कूर्मदास, बोधले बाबा, सन्तोबा पोबार, केशव स्वामी, जयराम स्वामी, नरहरि सुनार, सावता माली, जनार्दन पन्त आदि आदि सन्त उसी समय हुए। इनमें कुछ ब्राह्मण थे, कुछ स्त्रियां थीं, कुछ मुसलमान से हिन्दू बने हुए थे, बाकी कुन्वी, दरजी, माली, कुम्हार, सुनार, वेश्या, महार-चांडाल तक शामिल थे। इन्होंने हरिनाम की महिमा गान करके भक्ति मार्ग का उपदेश दिया । लोगों ने यह नहीं देखा कि कौन गा रहा है। जात-पांत ४७