पृष्ठ:सह्याद्रि की चट्टानें.djvu/५०

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की उतनी महिमा न रही जितनी हरिनाम और श्रेष्ठ कर्म की। उन्होंने महाराष्ट्र की लोकभाषा में ग्रन्थ लिखे, कविताएँ की, गीत सुनाए और उसका यह परिणम हुआ कि महाराष्ट्र में उदार सार्वजनिक धर्म की बुनियाद पड़ी और महाराष्ट्र में एक सत्ता का उदय हुआ। महाराष्ट्र की एकता को पंढरपुर के देवमन्दिर और उससे संबंधित यात्राओं से भी वहुत लाभ पहुंचा। यह पवित्र स्थान महाराष्ट्र का सबसे बड़ा तीर्थ स्थान था। ज्ञानदेव से लेकर रामदास तक जितने सन्त हुए, उन्होंने पंढरपुर को अपनी भक्ति का केन्द्र बनाया। हजारों पतित और अछूत समझे जाने वाले हरिजन पंढरपुर पहुँच कर पवित्र हो गए और पूज्य बन गए। इस प्रकार इन भक्तों एवं सन्तों ने लोकभाषा में कविताएँ बनाई और उपदेश दिए। वही लोक-भाषा अन्ततः समूचे महाराष्ट्र की मराठी बन गई और उनके अन्दर एकता के भाव जाग्रत हुए। एक भाषा, एक धार्मिक प्रवृत्ति और एक से सामाजिक संस्कारों से मिलकर महाराष्ट्र में उस राज्य-क्रांति का उदय हुआ कि जिसने मुगल तख्त की कब्र ही खोद दी। मराठे वड़े कष्ट-सहिष्णु थे। प्रकृति ने उन्हें बलिष्ठ और सहिष्णु बनाया था । यहाँ के प्राकृतिक टेढ़े-मेढ़े और संकुचित पर्वतीय मार्गों ने उन्हें गुरिल्ला युद्ध में सिद्धहस्त कर दिया था। वे बिजली की तरह अपने असावधान शत्रुओं पर टूट पड़ते और उनके सावधान होने से प्रथम ही उन्हें लूटपाट कर सह्याद्रि की कन्दराओं में लोप हो जाते थे। अपने छोटे-छोटे टटुओं पर सवार भुने चने या मक्का के दानों पर ही निर्वाह करके शत्रु से निरन्तर युद्ध कर सकते थे । बीजापुर और गोलकुण्डा की सेना के साथ रहकर उन्होंने उच्च श्रेणी की युद्धकला में प्रवीणता प्रास की थी। ४८