पृष्ठ:सह्याद्रि की चट्टानें.djvu/५४

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कन्वार में बड़े-बड़े युद्ध किए तथा हर जगह अपनी निराली सूम-बूझ और अडिग धैर्य का परिचय दिया। उसकी शक्तियाँ निरन्तर उपयोग में आकर परिमार्जित और परिवर्धित होती चली गई। जिन दिनों शाहजी के मामले को लेकर शिवाजी ने मुगलों से मम्पर्क स्थापित किया, और अपनी स्थिति की दृढ़ता में एक नया दृष्टि- कोग प्राप्त किया, उन्हीं दिनों मुगल साम्राज्य को पश्चिम में एक कुरारी टक्कर लगी । बारह करोड़ का व्यय और अपार जनशक्ति का क्षय करके भी कन्धार उसके हाथ से निकल गया। इस घटना का जिम्मेदार औरंगजेब को ठहराया गया जो उन दिनों काबुल-मुलतान का सूवेदार था। शाहजहाँ ने क्रुद्ध होकर औरंगजेब के सब पद और पैन्शन बन्द कर दिए और उसे वापस आगरा बुला लिया । औरंगजेब ताव खाकर रह गया । एक तो शत्रु से करारी हार, दूसरे पिता द्वारा यह अपमान, तीसरे दरवार की नजर में गिर जाना—यह सव बातें ऐसी थीं जो औरंगजेव की प्रकृति के प्रतिकूल थीं। वह अब शाहजहाँ से घृणा करता था और जहाँ तक सम्भव हो, आगरे से दूर रहना चाहता था । बेगम जहांनारा उसकी पीठ पर थी, उसके द्वारा औरंगजेब ने सिफारिश कराई और किसी तरह वह सन् १६५३ में फिर दक्षिण का सूबेदार बन गया । इस बार मुर्शिदकुली खां भी उसके साथ दक्षिण आया। इस बार दक्षिण आकर वह भूमि-व्यवस्था में लग गया। मुर्शिदकुली खां सुयोग्य माल पदाधिकारी था। उससे उसे भारी सहायता मिली। इस प्रकार दक्षिण में उसने अपनी स्थिति ठीक की और फिर बीजापुर की ओर नजर उठाई । उसने बीजापुर और गोलकुण्डा को पूर्णतया समाप्त कर डालने का पक्का इरादा कर लिया । अब तक ये सुलतान स्वतन्त्र शासक की भांति रहते थे और फारस के शाह को अपना सम्राट मानते थे । मुगल साम्राज्य में वे दारा से मिले रहते थे। इसके अतिरिक्त वे शिया थे। औरंगजेब अब किसी सुअवसर की ताक में रहने लगा । उसे वह अवसर ५२