पृष्ठ:सह्याद्रि की चट्टानें.djvu/६१

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"स्वीकार करता हूँ, आदिलशाह जर्जर हो रहा है, शाहजहां के सहारे कुछ दिन चल गई। अव तो औरङ्गजेब बादशाह है। वह इसे कब छोड़ेगा।" "और कुतुबशाही के विषय में आप क्या कहते हैं ?" "वह तो बीजापुर से भी गई-बीती है ।" "तो ब्राह्मण देवता, क्या यह बुद्धिमानी की बात नहीं कि डूवती नाव को छोड़ कर पृथ्वी पर पैर जमाया जाय । क्या नाव के साथ डूब मरना मूर्खता नहीं है ?" "परन्तु आप कहना क्या चाहते हैं-वह कहिए।" " मैं तो कहता है कि आपके खां-माहब डूबती नाव पर सवार हैं। उन्होंने तुलजापुर की भवानी का मन्दिर गोवध करके भ्रष्ट कर दिया । कहिए मेरा ही धर्म गया या आपका भी।" "सभी का गया, अनर्थ ही है।" "नो भूदेव, धर्म की रक्षा कीजिए।" "मैं ब्राह्मण असहाय अकेला क्या कर सकता हूँ ?" "आप अकेले क्यों हैं ? यह सेवक आपका शिप्य और यजमान है । आप ब्राह्मण हैं और मैं क्षत्रिय । अाप उपदेश दीजिए। यह भवानी की तलवार आपके सामने है । इमे मन्त्रपूत करके मेरे हाथ में दीजिए। कहिर, धर्म संस्थापनार्थाय विनाशाय च दुष्कृताम् ।" "पर मैं पराया दास हूँ। ऐसा नहीं कर सकता।" "तो उतारिए जनेऊ । आप म्लेच्छों के दास हैं तो ब्राह्मण नहीं रह सकते । म्लेच्छों के इस दास का मैं अभी वध करूंगा। मुझे भवानी का आदेश है ।" यह कह कर शिवाजी ने लाल-लाल आँखें करके नङ्गी तलवार उठाली। ५६