पृष्ठ:सह्याद्रि की चट्टानें.djvu/६२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

, ब्राह्मण डर गया। उसने कहा-"आप मुझ ब्राह्मण के साथ विश्वासघात करते हैं-अपना अतिथि बनाकर ?" "मैंने तो ब्राह्मण के चरणों में प्रथम ही तलवार रख दी थी। पर आप तो कहते हैं मैं ब्राह्मण नहीं हूँ, म्लेच्छ का दास हूँ।" "परन्तु मैं ब्राह्मण तो हूँ ही।" "तो दीजिए मुझे धर्मोपदेश, मैं आपका शिष्य हूँ।" शिवाजी ने घुटनों के बल बैठकर ब्राह्मण के चरणों में सिर झुका दिया । "शिवराज, महाराज उठिए । आपने मुझे धर्म-संकट में डाल दिया है । किन्तु आप कहिए आप क्या चाहते हैं। पर यह मत भूलिए कि मैं आदिलशाह का प्रतिष्ठित कुलकर्णी हूँ।" "क्या मेरे पिता आदिलशाही में कम प्रतिष्ठित हैं। उन्होंने ही उन्हें प्राधा राज्य जीत कर दिया है । दस बरस तक जब तक शाह रुग्ण- शैय्या पर रहे, मेरे पिता ही की तलवार की धार पर उनका राज्य सुरक्षित रहा।" “यह सच है महाराज!" "और आदिलशाही आज मेरा मुंह ताकती है। मैं यदि आज उस दरबार में जा खड़ा होऊँ तो शाही आंखें मेरे तलुए पर आ गिरेंगी।" "निस्सन्देह, फिर भी आप इस सम्मान की ओर नहीं देखते।" "मैं धर्म की ओर देखता हूँ, कर्तव्य की ओर देखता हूँ, गो- ब्राह्मणों की असहायावस्था की ओर देखता हूँ।" "आप अलौकिक पुरुष हैं, महाराज शिवाजी।" "किन्तु आदिलशाही एक कृष्णजी को पालती है तो डेढ़ करोड़ भास्करों को पीड़ित कराती है कृष्णजी के ही हाथों।" "मेरे हाथों कैसे ?" "आप किसलिए मेरे पास आए हैं, कहिए तो। इसीलिए न ६०