पृष्ठ:सह्याद्रि की चट्टानें.djvu/७

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२ महाराष्ट्र भूमि और मराठे महाराष्ट्र भूमि तीन भौगोलिक भागों में विभक्त है। पश्चिमी घाट और हिन्द महासागर के बीच एक लम्बी किन्तु संकरी जमीन का हिस्सा बहुत लम्बा चला गया है । इसकी चौड़ाई कहीं ज्यादा कहीं कम है। वम्बई और गोपा के बीच का प्रदेश कोंकरण कहाता है। गोआ के दक्षिण में कन्नड़ प्रदेश है। कोंकरण में प्रति वर्ष १०० से २०० इंच तक वर्षा होती है। यहां की मुख्य उपज चावल है। आम, केले और नारियल के वाग यहां वहुत हैं । घाट पार करने पर पूर्व की ओर लगभग २० मील चौड़ा धरती का एक लम्बा टुकड़ा पड़ता है-इसे मावल कहते हैं। यहां की धरती बहुत ही ऊँची-नीची है, दूर तक टेढ़ी-मेडी घाटियों में जहां-तहां समतल भूमि पाई जाती है । इसके आगे पूर्व की ओर बढ़ने पर पश्चिमी घाट की पहाड़ियों की ऊँचाई कम होने लगती है। और नदियों के कछार चौड़े और समतल होने लगते हैं । यहीं से वह प्रदेश शुरू होता है जिसे देश कहते हैं। यह दक्षिण के मध्य में स्थित दूर तक फैला हुआ एक विस्तृत उपजाऊ मैदान है । यहां की मिट्टी काली है। प्रकृति ने इस प्रान्त को ऐसा रूप दिया है कि विलासिता और कला वहां नहीं पनप सकती। परन्तु इन अभावों की पूर्ति वहां की जल- वायु के कारण वहां के निवासियों में आत्मविश्वास, साहस, अध्यवसाय, सादगी और सहिष्णुता के रूप में मिलती है । आत्मसम्मान और सामा- जिक समता यहाँ की आधारभूत विशेषताएँ हैं । १५वीं-१६वीं शताब्दी के लोकप्रिय सन्तों ने यहां जन्म की श्रेष्ठता की अपेक्षा चरित्र की पवित्रता को अधिक महत्व दिया, और यही कारण था कि शिवाजी को १७वीं शताब्दी में महाराष्ट्रियों की राजनैतिक एकता स्थापित करने में विशेष ५