मरते थे । विजय की भावना उनके मन में थी ही नहीं। जुझ मरने की भावना थी । शत्रुओं की अपेक्षा उनकी शनि भी बहुत कम थी। इमी से वे जब युद्ध को अग्रसर होते थे तो मरने की तैयारी करके, और बहुधा कट मरना तथा पराजय उनके पल्ले वैधती थी। तिल-तिल कर मरना ही उनका शौर्य था । मुगल-मैन्य के साथ रहकर भी उन्होंने नया युद्ध-कौशल नहीं सीखा । मुगलों ने उनकी अडिग भावना, कट मरने के संकल्प और उत्कट मौर्य का पूरा लाभ उठाया। उन्होंने यह नीति अपनाई कि किमी मुस्लिम मेनापति के माथ किमी राजपूत राजा को नत्थी रखते थे-जिससे उसे केवल कट मरने के लिए रणक्षेत्र में धकेल दिया जाता था, रण-कौगल मुगल-मेनापति के हाथों रहता था। यही कारण था कि मुगलों के लिए तो उन्होंने महासाम्राज्य जीता, पर अपने लिए सदैव हार ही पल्ले बांधी। मच पूछा जाए तो महाभारत-मंत्राम से लेकर मुगल-नाम्राज्य के पतनकाल तक हिन्दु-रणनीति में मेनानिन्त्र का सर्वथा अभाव रहा । महामन्द-मंत्रान में हिन्दुओं ने जो रणनीति अपनाई, वही अन्ततः मुगल साम्राज्य की समाप्ति तक चलती रही। उसका स्वरूप यह था कि सेनापति सबसे आगे आकर लड़ता था। जब तक वह कट न मरे, वही सबसे भारी जोखिम उठाता था। इस प्रकार वह युद्ध का संचालन नहीं करता था, स्वयं युद्ध करता था। परन्नु हिन्दू योद्धाओं के इतिहास में शिवाजी ने ही सबसे प्रथम रग चातुर्य प्रकट किया। वे कट मरने या युद्ध-जय के लिए नहीं लड़ते थे, उनका उद्देश्य राज्यवर्धन था । युद्ध उसका एक साधन था। वे युक्ति, शौर्य, साहस, दूरदर्शिता और रण-पांडित्य सभी का उपयोग करते थे। वे युद्ध में कम-से-कम हानि उठाकर अधिक-से-अधिक लाभ उाते थे । जूझ मरने की उनमें भावना थी ही नहीं, यद्यपि वे प्राण- संकट तक का दुस्साहस करते थे। इस प्रकार हिन्दुओं में शिवाजी, ७१
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