पृष्ठ:सह्याद्रि की चट्टानें.djvu/७८

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परलोक में धन्य हुआ। मैंने मानता मानी थी कि जब मेरा पुत्र छत्रपति बनेगा, तो मैं तुलजापुर की भवानी पर एक लाख की स्वर्ण मूर्तियां चढ़ाऊँगा। वह मूर्तियां चढ़ाए चला आ रहा हूँ। आज से तू छत्रपति होकर प्रसिद्ध हो।" इतना कहकर शाहजी स्वयं शिवाजी के सिर पर छत्र लेकर सेवक की भांति खड़े हो गए। शिवाजी ने फिर पिता के चरणों में सिर नवाया । शाहजी ने कहा-“मैंने तुम्हें रोकथाम के जो आदेश दिए थे, वे ऊपरी मन से ही थे । तुम्हारे प्रत्येक उत्थान से मैं खुश था। परन्तु बहुत बातों को सोचकर मैं तुमसे अलग-अलग ही रहा। इससे तुम्हें लाभ ही हुआ । शत्रु की सब गतिविधि पर मैंने अंकुश रखा।" "पिता, आपने मेरा सब संकोच दूर कर दिया। अब आज्ञा कीजिए, क्या करूं ?" "पुत्र, मैं आदिलशाह का दूत बनकर सन्धि-प्रस्ताव लेकर आया हूँ । आदिलशाह ने मुझे पूर्ण स्वतन्त्र राजा मान लिया है और अब तक जो राज्य-भूमि, किले नूने जीते हैं, उन पर तेरा अधिकार स्वीकार किया है तथा तेरे ही अनुकूल राज्य सीमाएँ मान ली हैं। अब यही बात है कि जब तक मैं हूँ, बीजापुर से विग्रह न कर। बीजापुर राज्य को मित्र- राज्य ससझ।" शिवाजी ने पिता की आज्ञा को शिरोधार्य किया। संधिपत्र पर हस्ताक्षर कर दिए । फिर कहा-"एक निवेदन मेरा भी है।" "कह पुत्र ।" "घोरपाण्डे ने आपको धोखे से बन्दी बनाया था, उसे मैंने मधोल पर चढ़ाई करके सपरिवार मार डाला है और उसकी ३,००० सेना का विध्वंस भी कर दिया है। उसकी सब जागीर और खजाना, मैं आपको अर्पण करता हूँ, स्वीकार कीजिए । सावंतों के युद्ध में पुर्तगाल वालों ने गोला-बारूद से उनकी सहायता की थी, अतः मैंने पंचमहाल पर चढ़ाई 7