पृष्ठ:सह्याद्रि की चट्टानें.djvu/८७

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" भाग में युद्ध किया था। माहजहां के लम्बे शासनकाल में कदाचित् ही कोई ऐमा वर्ष बीता होगा, जब इस राजपून योद्धा ने क्रिमी बड़ी चढ़ाई में अग्रभाग न निद हो । वह प्रसिद्ध विजेता था। इसके अतिरिक वह जैमा बिलमना व मरून योद्धा और सेनापति था, वैमा ही या मुद्र कटनीतिज्ञ राजपुरुष भी। बादगाह शाहजहाँ और मोरङ्गजेब भी कठिन समय में सदा उनका मुंह ताकते थे। वह बड़ा भारी राजनीतिज्ञ, व्यवहार-कुशल और धैर्यवान पुष था। मुगल दरबार के उसने बड़े ऊँचे-नीचे दिन देखे थे, और मुगलों के दरबारी मिष्टाचार का वह यूः पारङ्गन था। राजस्थानी भाषा और उर्दू के अतिरिक्त संस्कृत, दुबै और फारसी भाषाओं का भी उसे पूरा ज्ञान था। इन सब दुर्लभ और असाधारण गुणों के कारण वह दिल्ली के दरबार और माही सेना में सर्वप्रिय और आदरणीय माना जाना था, जहाँ अफगान, तुर्क, राजपूत और हिन्दुस्तानी लोगों की मिली-जुली मनियां मुगलों के इन के चाँद में अंकित शाही भाण्डे के नीचे संगठिन थीं। प्रायः राजदूत जोगीले, असावधान, नासिक, नीतिरहिन और अव्यवहारिक हुआ करते हैं, परन्तु राजा जयनिह के व्यक्तित्व में अद्भुत दूरदर्शिना, राजनैतिक पूर्तता, बातचीत में मिठास, और विपत्काल में सूझ-बुझ अपवाद रूप में थो। जयमिह बड़ी तेजी से चलकर ताबड़तोड़ दक्षिण में आ धमका । उसने सबसे पहले बीजापुर के मुलतान की प्राशाओं का ठीक-ठीक अध्ययन किया और आदिलशाह को आशा दिलाई कि यदि आदिलशाह मुगलों से मित्रता का व्यवहार करे, और यह प्रमाणित कर दे कि शिवाजी के साथ उसका कोई सम्बन्ध नहीं है, तो औरङ्गजेब उस पर प्रसन्न हो जाएगा और बीजापुर से वसूल होने वाली टांके की रकम में काफी कमी करवा देगा। बीजापुर दरबार को सहमत करके उसने बीजापुर के अन्य सारे शत्रुओं को भी अपने साथ मिला लिया और सव ओर से एक साथ ही शिवाजी पर आक्रमण करने का आयोजन किया। ८५