पृष्ठ:सह्याद्रि की चट्टानें.djvu/९१

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अयाचित भेंट अकस्मात् एकाएक शिवाजी के आगमन का समाचार सुनकर महाराज जयसिंह अवाक रह गए। वे हड़बड़ाकर खेमे के बाहर पाए। शिवाजी देखते ही दौड़कर उनके चरणों में मुके, पर महाराज ने उन्हें लपक कर अंक में भर लिया और भीतर लाकर उन्हें गद्दी पर बाहिनी और बैठाया और कहा-"आपने बड़ी कृपा की, अब इसे अाना ही घर समझिए।" शिवाजी ने कहा-"महाराज, अपना घर ममन कर ही आया हूँ और श्रीमानों के मद्व्यवहार मे सम्मानित है। आपका मेवर और आपकी प्राज्ञा मे विमुख नहीं। किन्नु दे महाराजाओं के मजराज, है भारतीयोद्यान की क्यारियों के माली, हे श्रीगम के वंगधर, प्रामे सब राजपूतों की गर्दन ऊँची है। आपकी यशस्विनी ननबार में बाबर के खानदान की श्रीवृद्धि हो रही है। सौभाग्य प्रारका नाय दे रहा है । हे सौभाग्यशाली बुजुर्ग, मैं आपको प्रगान करता है।" इतना कहकर शिवाजी ने अपना मम्नक राजा के चरणों में भुका दिया। फिर कहा- "मैंन मुना है, आप दक्षिण विजयी अन कर पाए हैं । महागा, क्या पार दुनिया के सामने हिन्दुओं के रन से अपने को रंगना चाहते हैं ? क्या पार नहीं जानते, यह लाली नहीं है, कालिमा है । यह धर्मद्रोह है।" कुछ देर शिवाजी चुप रहे । महाराज जयसिंह के मुंह से बोली नहीं फूटी । शिवाजी ने फिर कहा- "हे वीर शिरोमगि, आप यदि दक्षिण को अपने लिए जय किया चाहते हैं, तो यह भवानी की तलवार ८२