पृष्ठ:सह्याद्रि की चट्टानें.djvu/९३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

परिस्थितियों को भी विचारना पड़ता है। मेरी वान मानिए राइन्, इनमे युद्ध विग्रह में जो आपका जीवन नष्ट हो रहा है, म उसे अपने देश की मनृद्धिवर्धन में लगाइए । रङ्गनेव जो आप चाडगे, वही करेगा। यह मेरा श्रापको वचन है।" "तो आप मुझे आत्म-समर्पण करने की पाना दे रहे हैं।" "क्यों नहीं, अब तो मेरा आशा पिता-पुत्र का मन्बन्ध हुआ। पुत्र के लिए जो अंधर है, कही पिता करेगा।" "नहानात, बचान ने न हिन्दू धर्म और को वादगा की रक्षा का व्रत लिया था, मंग वह महान उद्यम माझ मनात हो जाया।" "नहीं राजन, आप ऐसा क्यों सोचते हैं। बारने हिन्दू राज्य दक्षिणा में स्थापित किया है, मेरी बात मानने में वह अटक और स्थिर रहा पाएगा । औरंगजब प्रानको दक्षिन का राजा स्वीकार कर लेगा।" "ार यदि मैं आमनमर्पगनर नो?" “नो भात स्वतन्त्र हैं । बुद्ध निः। पर मत्र के बलाबल पर भी विचार कीजिए । युद्ध में अमीन मौर्य प्राट करके भी प्रासको नक- लता नहीं मिलेगी। आपके प्रिय नहचर कट मरेंगे, प्रयाह वन नष्ट होगा और पराजय की लम्जा पन्ने पड़ेगी। इसी में कहता ई-अपना राज्य, अपने मेनन, अपना धन बचा लीजिए।" "नवराद, पत्रान ही से - इन बयाद्रि की दुर्गम चोटियों और दलहटियों में बनता रहा, मैंने स्वन्न देना. नान भवानी ने मुझे साना दी थी कि खड्न लो-देवना, ब्राह्मण, गो और धर्म की रक्षा को ! मने बरखों को दाजित कर दुर्ग र दुर्ग जब किए, सत्र जबकि, देव कित, रब का विस्तार किया। हे वीर निरो- नरिण, का मेरा यह अपय कुरा था ? अब क्या मैं मनानी के आदेश को त्वान हूँ? भार तिा हैं, पुत्र को आदेश बीजिए।"