पृष्ठ:सह्याद्रि की चट्टानें.djvu/९४

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16 "राजन्, पुत्रवत् ही कहता हूँ । अब आप स्वप्न को त्याग दीजिए । जागृत हो जाइए । नीति और धर्म में मेल कर लीजिए । वही कार्य कीजिए, जिसमें नीति-धर्म हो।" "नीति-धर्म क्या है ?" "जिसमें हानि कम हो, लाभ अधिक हो । वर्तमान निरापद हो। भविष्य की आशाएँ हों। यह नीति-धर्म है, यही व्यवहार दर्शन है ।" 'महाराज, मैं इस दर्शन को समझा नहीं।" "राजन्, मेरी वात ध्यान से सुनिए, मुगल साम्राज्य की दीवारें खोखली हो रही हैं । विलास और आलस्य ने उसे ग्रस लिया है । उसके पतन में अब देर नहीं है। शीघ्र ही मुगल तख्त चूर-चूर होगा। तब हिन्दू-राज्य उदय होगा। उम दिन के लिए महाराष्ट्र में महाराज्य की प्रतिष्ठा के लिए, इस समय की वाधाओं से अपनी हानि बचा लीजिए। मेरा आशीर्वाद है कि एक दिन महाराष्ट्र में स्थापित आपकी यह हिन्दू शनि ममुत्रे भारत को प्राकान्ल करेगी।" "तो महागज, आप जैसे महापुमय उस इग्नग मुगल साम्राज्य के स्तम्भ क्यों हो रहे हैं ?" "राजन्, हम राजपूत जो व्रत लेते हैं, उसे जीते जी नहीं त्यागते । व्रत-पालन के सामने हम सुख-दुख, हानि-लाभ का विचार नहीं करते।" "तो फिर आप लाभ की आशा से मेरा व्रत भंग कराना क्यों चाहते हैं ? हम मराठे भी अपने व्रत के लिए जीवनदान से पीछे नहीं हटते । तीम बरस तक मैंने सह्याद्रि में यही किया है। अब आज वह व्रत मैं त्याग दूं?" शिवाजी के नेत्रों से झर-झर आँसू बहने लगे । महाराज जयसिंह जड़वत् बैठे रहे । फिर उन्होंने गम्भीर वाणी से कहा-"वीरवर, १२