को संभालने में बहुत अक्षम है। फिर जैसा मैंने कहा कि पिछले डेढ़ सौ साल से एक प्रवृत्ति चली है कि हम अपने को ही चाबुक मारने का काम करते जा रहे हैं। अपने को नहीं तो अपने लोगों को 'ये पिछड़े हैं, ये जानते नहीं इनको बताना है, इनको नई चीज़ समझानी है, नया संगठन बनाना है वग़ैरह।' इसमें एक और विचारधारा के कारण एक शब्द आया है जो जाने-अनजाने हम सब लोगों ने अपनाया है वह है-'लोक'। किसी भी चीज़ के आगे लोक लगाओ, जन लगाओ सब ठीक हो जाएगा। मैं छोटे-से-छोटा रद्दी-से-रद्दी आंदोलन चलाऊं लेकिन उसके आगे जन लगा कर जन आंदोलन बनाकर आपको डराना चाहूंगा। ऐसे ही लोक शक्ति, लोक क्रांति, लोक चेतना ऐसी लिस्ट बनाएंगे तो आपको सौ-डेढ़-सौ नाम इसमें मिल जाएंगे।
मैंने पिछले तीस साल में अगर जो कुछ किया और उसके कारण आप लोगों ने अपने बीच में आज जो कुछ जगह दी है उदारतापूर्वक तो मुझे लगता है कि मैंने लोक बुद्धि को समझने का प्रयास किया है। अगर पांच लाख गांवों के इस देश को संभालना है तो अपने देश के लोगों से प्यार करना सीखना होगा। हम उसका एक हिस्सा हैं, उस सिंधु की एक बिंदु हैं। ये जब तक हमारे ध्यान में नहीं आएगा, तब तक हम उससे विशिष्ट हैं, हम उससे कुछ ज़्यादा जानते हैं-यह घमंड बना रहेगा और इसमें से कुछ निकलेगा नहीं। इसलिए इस बुद्धि पर भरोसा करने लायक चीज़ें मुझे आप सबके आशीर्वाद से देखने का मौका मिला और उसी में से मैंने जो कुछ निकाला है तो मुझे लगता है कि ये जो लोक क्रांति की फुलझड़ी हम लोग जलाते हैं लोक शब्द लगाकर वो कुछ छुट-पुट कर उजेला फेंकती है, हम उससे संतुष्ट हो जाते हैं और उसके बाद जैसे ही फुलझड़ी समाप्त होती है। बहुत अंधेरा छा जाता है। तो ये फुलझड़ियां हम सौ डेढ़ सौ सालों से लोक शक्ति की लेकिन उसमें बुद्धि का भरोसा न रखकर हम जो जलाते रहे हैं, उससे बचने की कोशिश करनी पड़ेगी।
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