पृष्ठ:साम्प्रदायिकता.pdf/२६

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संस्कृति और साम्प्रदायिकता साम्प्रदायिकता अपने को संस्कृति के रक्षक के तौर पर प्रस्तुत करती है, जबकि वास्तव में वह संस्कृति को नष्ट कर रही होती है। साम्प्रदायिक लोग अपने को सांस्कृतिक पुरूष, अपनी राजनीति को संस्कृति के रूप में पेश करते हैं। वे संस्कृति की शुद्धता व सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की लफ्फाजी के लिए प्रख्यात हैं। हिन्दी के महान रचनाकार मुन्शी प्रेमचन्द ने कहा था कि 'साम्प्रदायिकता हमेशा संस्कृति का लबादा ओढ़कर आती है क्योंकि उसे अपने असली रूप में आते हुए लज्जा आती है।" सांस्कृतिक श्रेष्ठता, दम्भ व जातीय गौरव साम्प्रदायिकता के साथ आरम्भ से जुड़े हैं। साम्प्रदायिकता के असली चरित्र को समझने के लिए उसके सांस्कृतिक लबादे को, उसके खोल को समझना और इस खोल के साथ उसके संबंधों को समझना निहायत जरूरी है। संस्कृति में लोगों के रहन-सहन, खान-पान, मनोरंजन, रुचियां - स्वभाव, गीत- त-नृत्य, सोच-विचार, आदर्श - मूल्य, भाषा बोली सब कुछ शामिल होता है। मानव-समाज जो जीवन में जीता है उस सबको मिलाकर ही संस्कृति बनती है। किसी क्षेत्र विशेष के लोगों की संस्कृति विशिष्ट होती है चूंकि जलवायु व भौतिक परिस्थितियां बदल जाती हैं, भाषा-बोली बदल जाती है, खान-पान, व रहन-सहन बदल जाता है जिस कारण एक अलग संस्कृति की पहचान बनती है। इस तरह कहा जा सकता है कि संस्कृति का सम्बन्ध भौगोलिक क्षेत्र से होता है और संस्कृति की पहचान भाषा से होती है। मनुष्य के खान-पान व रहन-सहन के तौर तरीके काफी कुछ क्षेत्र विशेष की जलवायु पर निर्भर करते हैं। यहां तक कि रीति-रिवाज व पूजा-उपासना के ढंग भी इसी से प्रभावित होते हैं। पहाड़ों पर रहने वाले, मरुस्थल में रहने वाले, समुद्र के किनारे रहने वाले, सदा बरसात होने वाले क्षेत्रों में रहने वाले तथा समतल में रहने वाले लोगों का खान-पान, रहन-सहन एक जैसा नहीं हो सकता। यानी उनकी संस्कृति एक जैसी नहीं हो सकती। धर्म और धार्मिक कहे जाने वाले कार्य भी जलवायु की भिन्नता के कारण बदल जाते हैं। जैसे कहा जाता है कि स्नान करके पूजा करनी चाहिए तो जहां मरुस्थल में पानी की कमी है या जहां फिर बर्फ ही बर्फ पड़ती है वहां यह नियम लागू नहीं हो सकता। जलवायु के संस्कृति और साम्प्रदायिकता / 27