पृष्ठ:साम्प्रदायिकता.pdf/५६

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साम्प्रदायिकता और साम्राज्यवाद । साम्प्रदायिकता और साम्राज्यवाद के संबंधों पर विचार करना कई लोगों को अजीब लग सकता है। वे सोच सकते हैं कि साम्प्रदायिकता तो हिन्दू- मुसलमान के बीच झगड़ा है फिर उसका साम्राज्यवाद से क्या वास्ता । लेकिन ध्यान देने की बात है कि साम्प्रदायिकता एक विचारधारा है, साम्प्रदायिकता एक दृष्टि है जो समाज के हर पहलू पर अपना पक्ष थोपती है। समाज में घटित एक घटना का अन्य घटनाओं से किसी न किसी रूप मे संबंध होता है। समाज में मौजूद कोई भी विचारधारा या घटना निरपेक्ष नही होती। साम्प्रदायिकता और साम्राज्यवाद का बहुत गहरा रिश्ता है। बल्कि यहां तक कहा जा सकता है कि साम्प्रदायिकता साम्राज्यवाद के हितों की ही पूर्ति करती है और साम्प्रदायिकता को फलने-फूलने के लिए साम्राज्यवाद अनुकूल वातावरण उपलब्ध करवाता है। साम्राज्यवाद का मतलब है एक राष्ट्र द्वारा दूसरे राष्ट्र के संसाधनों का शोषण । अंग्रेजी साम्राज्य ने भारत का जमकर शोषण किया और हालात यहां तक पहुंचे कि लोग भूखे मरने के कगार पर आ गए । साम्राज्यवाद ने अपने विस्तार के लिए अपने गर्भ से साम्प्रदायिकता को जन्म दिया और पालन पोषण किया; मानवता का खून पिला कर साम्प्रदायिकता के राक्षस को खूब मोटा किया। अंग्रेजी साम्राज्यवाद ने स्थायी भूमि बंदोबस्त व व्यापार की ऐसी नीतियों को लागू किया, जिससे कि भारत के किसान व मजदूर तबाही के कगार पर आ गए और अंग्रेजी साम्राज्यवाद को खदेड़ने के लिए योजनाएं बनाने लगे। इसके परिणामस्वरूप 1857 का पहला स्वतंत्रता संग्राम हुआ। कुछ लोग इसे रजवाड़ों की पुनर्स्थापना का प्रयास भी कहते है, जो सही नहीं है। क्योंकि अंग्रेजों के खिलाफसेना के सिपाही और किसान लड़े थे। इन्होंने ही स्वतंत्रता संग्राम की शुरूआत की थी, सबको इस लड़ाई में शामिल करने के लिए राजे-रजवाड़ो को इसका नेतृत्व सौंपा था। साम्राज्यवाद की मार सभी लोगों पर पड़ी थी, चाहे वे हिन्दू थे या मुसलमान सबको बराबर रूप से सताया गया था, इसलिए सभी इकट्ठे मिलकर लड़े थे और इस ताकत को अंग्रेज पहचान चुके थे। इस बात का अनुमान लगा लिया था कि वे लम्बे समय तक शासन व लूट जारी नहीं रख सकते । इस ताकत को साम्प्रदायिकता और साम्राज्यवाद / 57