पृष्ठ:साम्प्रदायिकता.pdf/६

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प्राक्कथन भारतीय समाज में साम्प्रदायिकता ने जगह बना ली है। साम्प्रदायिक दुष्प्रचार से यह लोगों की सामान्य चेतना का ही हिस्सा बना दी गई है। आम लोग स्वभावतः ऐसी प्रतिक्रिया करते हैं जो साम्प्रदायिकता को मान्यता देती है। उनको इसमें कुछ भी गलत नहीं लगता, सबसे चिन्ता की बात यही है कि वे इसे धर्म-प्रेम, देश-प्रेम, राष्ट्र-प्रेम, संस्कृति-प्रेम व इतिहास - प्रेम के नाम पर करते हैं । ऐतिहासिक क्रम से देखें तो साम्प्रदायिकता की उत्पत्ति अंग्रेजों ने भारत में अपना शासन सुरक्षित करने के लिए की थी । जब भी स्वतन्त्रता आन्दोलन तेज होता था, साम्प्रदायिक शक्तियां सक्रिय हो जाती थीं और लोगों को धर्म के आधार पर बांट देती थी, जिससे लोग आपस में लड़ने लग जाते थे और अंग्रेजी शासन को संजीवनी बूटी मिल जाती थी । स्वतन्त्रता से पहले अंग्रेजों ने हिन्दुओं व मुसलमानों के उच्च वर्ग को सरकारी नौकरियों का लालच देकर व सत्ता में भागीदारी का लालच देकर अपनी कुत्सित योजना में शामिल किया था । साम्प्रदायिकता की सबसे घृणित अभिव्यक्ति साम्प्रदायिक दंगों में होती है, लेकिन सिर्फ दंगों तक साम्प्रदायिकता को सीमित नहीं किया जा सकता। साम्प्रदायिकता एक विचारधारा है, एक दृष्टि है जो समाज के विभिन्न मुद्दों पर – - धर्म, संस्कृति, राष्ट्र, राजनीति, धर्मनिरपेक्षता, इतिहास व समाज के अन्य पहलुओं पर अपना मत व्यक्त करती है। अपनी इस प्रणाली से वह लगातार समाज में सक्रिय रहती है । साम्प्रदायिकता धर्म का इस्तेमाल करती है, धर्म के साथ जुड़ी संकीर्णता, पिछड़ापन व अंधविश्वास की खुराक लेकर वह समाज में वैधता बनाने की कोशिश करती है और लोगों को अपने साथ जोड़ने में कामयाब हो जाती है। वास्तव में उसका धर्म के मूल्यों से कोई लेना-देना नहीं है, बल्कि वह धर्म की गलत व्याख्या करके उसको भी विकृत करती है। कभी वह संस्कृति के रक्षक के तौर पर तो कभी राष्ट्रवादी होने का दावा करती है, अपने वास्तविक चरित्र को छुपाने के लिए वह तरह-तरह के प्रपंच रचती है, लोगों की भावनाओं से जुड़े हुए मुद्दे उठाकर समाज में अपना स्थान बनाती है। समाज में साम्प्रदायिक चेतना के प्रसार का परिणाम ही है कि साम्प्रदायिक प्राक्कथन / 7